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________________ 04 श्री आपकाचार जी गाचा-१०॥ Oo अनेक दु:खों को भी भोगना पड़ते हैं। चोरी कृत व्रतधारी च, जिन उक्तं पद लोपन । देवगति में अन्य देवों का उत्कर्ष और अपना अपकर्ष देखकर दु:ख होता है तथा बलवान देव की आज्ञा में अन्य अल्प पुण्य वाले देव हाथी, बैल, घोड़ा और मयूर । असास्वतं अनृतं प्रोक्तं, धर्म रत्न विलोपितं ।। १०६॥ आदि का रूप धारण करके सवारी के काम में लाये जाते हैं तथा जब स्वर्ग से च्युत अन्वयार्थ- (चोरी कृत व्रतधारी च) व्रतधारी होकर और चोरी करना (जिन होने में छह माह बाकी रह जाते हैं तो अवधिज्ञान से अपने गन्दे और भद्दे जन्म स्थान उक्तं पद लोपन) जिनेन्द्र के वचनों का और पद का लोप करना विपरीत कहना, को जानकर वे बड़े दुःखी होते हैं। इस प्रकार की संवेदनी कथा से यह जीव चतुर्गति विपरीत आचरण करना (असास्वतं अनृतं प्रोक्तं) इधर-उधर की झूठी मान्यतायें, रूप संसार से विरक्त होकर मोक्ष में लगता है तथा वर्तमान मनुष्य भव में स्त्री आदि ८ आचरण जो शाश्वत और सत्य नहीं हैं, मिथ्या हैं, झूठे हैं उन्हें कहना और करना से रति करने वाला मोह के उदय से उसी तरह सुख मानता है,जैसे-खाज का रोगी (धर्म रत्न विलोपित) धर्म रत्न अपने आत्म स्वभाव को लोप करना चुराना है। खाज को खुजाने में सुख मानता है; अत: मनुष्य को इन काम भोगों से विरक्त होकर विशेषार्थ- यहाँ यह बताया जा रहा है कि विकथाओं को कहना सुनना अधर्म मोक्ष प्राप्ति की साधना करनी चाहिये। है। इससे जीव दुर्गति जाता है, संसार के दु:ख भोगता है। उसमें चोर कथा के इस प्रकार इन धर्म युक्त कथाओं को करना चाहिये क्योंकि कथायें कुमार्ग का अन्तर्गत चोरी करने के परिणाम से संसार में दारुण दुःख भोगना पड़ते हैं क्योंकि नाश करने में समर्थ होती हैं। जैसे-माता सुखकर हितकारी कथायें उपदेश देकर उससे आर्त-रौद्र ध्यान चलता है जो महा दु:खदायी होता है। बालक के मन को प्रसन्न करती है। उसी प्रकार यह कथायें सुनने वालों के कान और यहाँ प्रश्न है कि जिन्होंने अणुव्रत, महाव्रतधारण कर लिये हैं जो व्रतधारी हो मन को आनंदित करती हैं और स्त्रीकथा, भोजनकथा, राजकथा, चोरकथा को दूर गये हैं, उन्हें तो फिर चोरी हिंसादि पाप नहीं लगते? उसके उत्तर में श्री तारण से ही छोड़ देना चाहिये। स्त्रियों के रूप, यौवन, लावण्य, वेषभूषा तथा चाल-ढाल स्वामी कह रहे हैं कि जिन्होंने व्रत धारण कर लिये हैं,जो अणुव्रती श्रावक, महाव्रती की चर्चा करने को स्त्रीकथा कहते हैं। दाल, भात,शाक,खांड,खाजा आदि भोजन साधु हो गये हैं परंतु यदि वह जिनेन्द्र के वचनों का लोप करते हैं। अपने पद के की चर्चा को भोजनकथा कहते हैं। चोर अमुक प्रकार से गड्ढे खोदते हैं, ताले विपरीत आचरण करते हैं तो वह भी चोर हैं, ऐसे कुदेव-अदेवादि की पूजा मान्यता खोलते हैं, दूसरों को ठगते हैं इत्यादि चर्चा को चोरकथा कहते हैं। अमुक देश में यह करना और शारीरिक आचरण, व्रत, संयम, खान-पान की शुद्धि आदि को धर्म होता है, अमुक देश में यह होता है, अमुक देश में यह हो रहा है, अमुक जगह यह हो कहना और धर्म मानकर उन्हीं में लगे रहना, अपने धर्म रत्न का लोप करना, आत्म रहा है, आजकल यह चल रहा है, ऐसा होने वाला है ऐसी चर्चा को देशकथा,राजकथा स्वभाव को चुराना, आत्मा का घात करना, महा हिंसा और पाप है; क्योंकि सत्य कहते हैं। ९ वस्तु स्वरूपको कहना, वैसा ही श्रद्धान करना मानना कि मैं एक अखंड अविनाशी इन विकथाओं से परिणामों में विकृति आती है। भय, चिन्ता व्याप्त रहती चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं मेरे नहीं, मेरा शुद्ध स्वभाव है। आर्त-रौद्र ध्यान चलते हैं। अब क्या होगा? ऐसे संक्लेश भाव रहते हैं। जिससे शुद्धात्म स्वरूप यही मेरा सच्चा धर्म है। इसी की साधना, आराधना धर्म की साधना वर्तमान जीवन भी दु:खमय रहता है और भविष्य भी दु:खमय बनता है ; इसलिये आराधना है और इसी से जीवन में सुख शान्ति आनंद और मुक्ति की प्राप्ति होती र इन कथाओं को वचनों से कहना तो दूर, मन से भी नहीं सोचना चाहिये। 5 है। इसके अतिरिक्त यह दया, दान, संयम,तप, पूजा, भक्ति आदि बाह्य आचरण दूसरों के गुण-दोषों के प्रगट करने में मन के लगे रहने से कर्म बन्ध होता है, सब पुण्य-पाप, शुभ-अशुभ कर्म संसार के कारण अधर्म ही हैं। इनसे कभी भी यह विकथायें कहना सुनना तो अधर्म पाप कर्म बन्ध और दुर्गति का कारण है ही तीन काल धर्म नहीं हो सकता। जैसे-पानी के विलोने से कभी मक्खन नहीं निकल तथा जिनेन्द्र के वचनों का लोपन करना,व्रतधारण करके विपरीत आचरण करना, सकता, नमक को खाते-खाते कभी मिश्री का स्वाद नहीं आ सकता। ऐसे ही यह धर्म के विरुद्ध कहना भी चोरी है। इसे आगे कहते हैं बाह्य आचरण शारीरिक क्रिया करते हुए कभी भी तीन काल धर्म नहीं हो सकता। ७६
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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