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________________ You श्री आचकाचार जी गाथा-९४-१०. Oo ही संसार है। पर के धर्म से किसी का भला नहीं होता, स्वधर्म से ही सबका भला होता चर्चा करने से क्या लाभ है ? बाह्य आचरण सत्कर्म करना ही धर्म है वह ऐसा कहता है। निज शुद्ध स्वभाव के श्रद्धान ज्ञान आचरण के विपरीत और जो कुछ भी है, वह है। सब शुभाशुभ कर्म, अधर्म ही है, जो संसार का कारण है। विकथा करने वाले के परिणाम अशुभ रहते हैं, वह अशुभ भावना करने में ही श्री तारण स्वामी ने यहाँ अधर्म के लक्षण में सबसे पहले आर्त-रौद्र ध्यान * आनंद मानता है, आनंदित रहता है। काम-भोग, रूप-रंग, ममत्व भाव,मायाचारी ७ को बताया, आगे विकथायें भी अधर्म हैं, इस बात को कहते हैं की चर्चायें बड़ी विशेषता से वर्णन करता है। नये-नये नाटक, उपन्यास लिखता २. विकथा, व्यर्थ चर्चा करना अधर्म है है। श्रृंगार रस की कामभाव बढ़ाने वाली नई-नई कथायें कहता है और हमेशा विकहा राग संबंध, विसयं कषायं सदा । विषय-कषाय में लगा रहता है। इन विकथाओं के कहने सुनने, इन्हीं चर्चाओं में अनूतं राग आनंद,ते धर्म अधर्म उच्यते ॥ १८॥ में लगे रहने का क्या परिणाम होता है वह आगे कहते हैं स्त्री कथा करने वाला नरक जाता हैविकहा प्रमानं असुहं च, नंदितं असुह भावना। स्त्रियं काम रूपेन, कथितं वन विसेषितं । ममतं काम रूपेन, कथितं वन विसेषितं ॥ ९९॥ ते नरा नरयं जांति, धर्म रत्न विलोपितं ॥१०॥ अन्वयार्थ- (विकहा राग संबंध) विकथा, व्यर्थ चर्चा का राग से सम्बन्ध होता है (विसयं कषायं सदा) हमेशा विषय-कषायों में रत रहता है (अनृतं राग आनंद) अन्वयार्थ- (स्त्रियं काम रूपेन) स्त्रियों की, काम की रूप की चर्चा (कथितं व्यर्थ चर्चा करने वाला झूठे राग में आनंद मानता है (ते धर्म अधर्म उच्यते) वह धर्म वन विसेषित) नाना प्रकार से बड़ी विशेषता से वर्णन करता है (ते नरा नरयं जांति) को अधर्म कहता है, आत्मा की बात उसे रुचती नहीं है। ९ वह मनुष्य नरक जाता है (धर्म रत्नं विलोपित) धर्म रत्न का लोप करके; क्योंकि (विकहा प्रमानं असुहं च) विकथा करने वाले के परिणाम हमेशा अशुभ ॐ इन चर्चाओं से आत्मा की कोई सुध नहीं रहती परिणाम बड़े अशुभ निकृष्ट होते हैं, इन रहते हैं (नंदितं असुह भावना) अशुभ भावना में ही आनंदित रहता है (ममतं काम ना में ही आलित रखता इससे नरक जाता है। रूपेन) ममत्व, मायाचारी, काम-भोग, रूपरंग की (कथितं वर्न विसेषित) चर्चा में विशेषार्थ- यहाँ विकथा का वर्णन चल रहा है। विकथा अधर्म की जड़ है। कथायें बड़ी विशेषता से वर्णन करता है। > अधर्म में रत जीव हमेशा दुःखी चिंतित भयभीत रहता है और नरक. निगोदादि विशेषार्थ- विकथा, व्यर्थ चर्चा को कहते हैं। यह चार होती हैं- राजकथा, दुगातया म जाता है। यहा विकथा म स्त्राकथा का वर्णन चल रहा चोरकथा, स्त्रीकथा, भोजनकथा । जिनसे कुछ लेना देना नहीं, कुछ होना नहीं, स्त्रियों की, काम भोग की, रूपरंग की, श्रृंगार रस की कथाओं में रत रहता है, निष्प्रयोजन ही जिससे अपने जीवन और समय का दुरुपयोग होता है। अज्ञानी १ नाना प्रकार से बड़ी विशेषता से वर्णन करता है, वह उसमें ही तन्मय लीन रहता है संसाराशक्त बहिरात्मा जीव इन्हीं व्यर्थ चर्चाओं में लगा रहता है। विकथाओं का राग फिर उसे अपने आत्म स्वरूप, धर्म की कोई सुध-बुध नहीं रहती। वह सब लोप से सम्बन्ध होता है। इन चर्चाओं को करने वाले हमेशा विषय-कषायों में रत रहते हो जाती है और वह इन्हीं निकृष्ट अशुभ भावों में रत रहने के कारण नरक जाता है। हा हैं, झूठे राग में आनंद मानते हैं। व्यक्तियों को खश करने जनरंजन राग में ही रावण इसी स्त्री कामभाव के पीछे सीताजी का अपहरण करके ले गया। जिसके बहिरात्मा जीव आनंद मानता है। मन की सन्तुष्टि, प्रसन्नता, मन को रंजायमान कारण अपना राजपाट खोया, पूरा वंश नष्ट हुआ, अपमान सहन किया और नरक करने में लगा रहता है। वह धर्म को अधर्म कहता है, अधर्म को धर्म कहता है। आत्मा गया। की चर्चा उसे अच्छी नहीं लगती। कहाँ आत्मा-आत्मा लगा रखी है, यह सब व्यर्थ स्त्रीकथा आत्म स्वरूप को भुलाने वाली,धर्म रत्न को लोप करने वाली नरक बकवास है ऐसा कहता है, पहले अपनी क्रिया आचरण देखो यह व्यर्थ आत्मा की ले जाने वाली है, इसलिये इन विकथाओं से हमेशा बचते रहना चाहिये। जिसे servedaberrease ७२
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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