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________________ to श्री श्रावकाचार जी जिसमें निराकुलता निश्चिन्तता रहे सुख होवे, वह धर्म है। जो आत्म ज्ञान से रहित शास्त्र आदि का ज्ञान भी है, उस ज्ञान से कुछ काम जिसमें आकुलता भय चिन्ता होदःख होवे, वह सब अधर्म है। नहीं; क्योंकि वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान रहित तपशीघ्र ही जीव को दु:ख का कारण यही जीवन का प्रमुख विषय है, जिस पर वर्तमान और भविष्य निर्भर है। , होता है। निदान बंध आदि तीन शल्यों को आदि ले समस्त विषयाभिलाष रूप अगर सत्धर्म उपलब्ध हो जावे तो वर्तमान जीवन सुख शान्ति आनंदमय रहे और * मनोरथों के विकल्प जाल रूपी अग्नि की ज्वालाओं से रहित जो निज सम्यकज्ञान ७ भविष्य में परमानंद मुक्ति की प्राप्ति हो। अधर्म का आश्रय होने से वर्तमान जीवन है, उससे रहित बाह्य पदार्थों का शास्त्र द्वारा ज्ञान है, उससे कुछ काम नहीं होता। दु:खी अशांत भयभीत चिन्तित रहता है और भविष्य भी अंधकारमय है। कार्य तो एक निज आत्मा के जानने से होता है। सद्गुरू तारण स्वामी यहाँ अधर्म का लक्षण बता रहे हैं कि यह जीव कुगुरुओं यहाँ प्रश्न किया कि निदान बंध रहित आत्म ज्ञान बतलाया यह निदान बंध के जाल में फंसकर अधर्म का सेवन करता है। अधर्म क्या है ? उसका स्वरूपकिसे कहते हैं ? बताया जा रहा है। कुगुरुओं द्वारा लिखे अप्रामाणिक असत्य शास्त्रों को पढ़ना समाधान-जो देखे सुने और भोगे हुए इन्द्रियों के भोगों में जिसका चित्त रंग सुनना और इससे हिंसादि कार्यों में उत्साह पूर्वक लगे रहना जबकि हिंसा में आनंद रहा है, ऐसा अज्ञानी जीव रूप लावण्य सौभाग्य का अभिलाषी, वासुदेव चक्रवर्ती मानना ही जिनागम में अधर्म बताया गया है। पद के भोगों की वांछा करे,दान, पूजा, तपश्चरणादिकर भोगों की अभिलाषा करे, चित्त के किसी एक वस्तु या विषय पर एकाग्र होने को ध्यान कहते हैं। संसारी वह निदान बंध है, यह बड़ी शल्य अर्थात् कांटा है। इस शल्य से रहित जो आत्म जीव के साथ आर्त-रौद्र ध्यान संस्कारित अपने आप होते रहते हैं। हिंसा करने में ज्ञान उसके बिना शब्द शास्त्रादिक ज्ञान मोक्ष का कारण नहीं है; क्योंकि वीतराग आनंद मानना, झूठ बोलने में आनंद मानना, चोरी करने में आनंद मानना, अब्रह्म स्वसंवेदन ज्ञान रहित तप भी दुःख का कारण है इसलिये अज्ञानियों का तप और कुशीलादि के सेवन में आनंद मानना और इनके भावों में बहना यही रौद्र ध्यान है श्रुत यद्यपि पुण्य का कारण है तो भी मोक्ष का कारण नहीं है। और यह नरक गति का कारण है तथा आर्त ध्यान-इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग, धर्म, मोक्ष का हेतु मोक्ष देने वाला होता है । अधर्म, कुधर्म संसार में दुर्गति पीड़ा चिन्तवन और निदान बंध इन्हीं योग संयोग में अथवा इनके भावों में बहना कराने वाला दारुण दुःख देने वाला होता है। इसी बात को मोक्षमार्ग प्रकाशक में और हमेशा दुःखी रहना यह आर्त ध्यान तिर्यंच गति के बन्ध का कारण है। कहा है बुरे कामों में, बुरे भावों में लगे रहना, कठोर दुहप्रवृत्ति रौद्र ध्यान है। जहाँ हिंसादि पाप उत्पन्न हो व विषय कषायों की वृद्धि हो वहाँ धर्म माने सो हमेशा दु:खी शोक भय आर्त परिणामों में रहना आर्त ध्यान है। कुधर्म जानना । यज्ञादिक क्रियाओं में महाहिंसादिक उत्पन्न करें, बड़े जीवों का आर्त-रौद्र के भावों में बहना संसार में दुर्गति का कारण है और इससे मोह, घात करें और इन्द्रियों के विषय पोषण करें। उन जीवों में दुष्ट बुद्धि करके रौद्र राग-द्वेष आदि बढ़ते हैं। यह जीव आत्मा इनमें डूबा संसार के दारुण दु:ख भोगता ध्यानी हो तीव्र लोभ से औरों का बुरा करके अपना कोई प्रयोजन साधना चाहे है यह सब अधर्म है। धर्म तो एक मात्र निज चैतन्य सत्ता स्वरूप शुद्ध स्वभाव यही और ऐसे कार्य करके वहाँ धर्म माने सो कुधर्म है तथा तीर्थों में व अन्यत्र स्नानादि अपना सच्चा धर्म है। इसके श्रद्धान ज्ञान और आचरण से ही जीवन में सुख शान्ति कार्य करे वहाँ छोटे-बड़े बहुत से जीवों की हिंसा होती है। शरीर को चैन मिलता है आनंद होता है। इसके विपरीत जो कुछ भी है वह सब अधर्म, कुधर्म ही है, जो इसलिये विषय पोषण होता है और कामादिक बढ़ते हैं। कुतूहलादिक से वहाँ 9 संसार का कारण दारुण दु:ख देने वाला है। कषाय भाव बढ़ता है और धर्म मानता है सो यह कुधर्म है। इसी बात को आचार्य योगीन्दुदेव परमात्म प्रकाश में कहते हैं प्रत्येक वस्तु या जीव आत्मा का जो निज शुद्ध स्वभाव है वही प्रत्येक जीव X जं णिय बोहहँ बाहिर णाणु वि कज्जुण तेण। का अपना धर्म है। धर्म में कोई भेद नहीं होता। जैसे- सत्य एक होता है वैसे ही धर्म दुक्खई कारणु जेण तउ, जीवहं होइ खणेण ॥७५॥ भी एक होता है और वह प्रत्येक जीव का अपना स्वतंत्र होता है। धर्म में भेद करना
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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