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________________ wcono श्री श्रावकाचार जी गाथा-६८, ९ SOON समता भाव हो। जिसके अन्तर में समस्त जगजीवों के प्रति करुणा बहती हो तथा जो मुक्त हो गये हैं (मिथ्या माया न दिस्टंते) अब मिथ्या माया दिखते ही नहीं अपने आत्मीय आनंद में निमग्न रहता है। जिसका चेहरा खिलता हआ कमल जैसा हैं (संमिक्तं सुद्ध दिस्टितं) शुद्ध सम्यक्त्व ही अर्थात् अपना निजशुद्धात्मा ही देखते। प्रफुल्लित दिखाई देवे। जो वीतरागी हितोपदेशी और समभावी हो वह सच्चा गुरू ५ है वही दिखता है। होता है। वह क्या करता है? यह सद्गुरू तारण स्वामी बता रहे हैं कि वह अपने निज (संसारे तारनं चिंते) संसार से तरने, मुक्त होने का विचार करते हैं (भव्य ७ शुद्धात्मा जो शाश्वत है, ध्रुव है, लोकालोक में सारभूत तत्व है। जो सबको देखने- लोकैकतारकं) और संसारीप्रत्येक भव्य जीव के तारणहार हैं (धर्मस्य अप्प सद्भाव) जानने वाला है तीन लोक तीन काल में हमेशा ज्ञानमयी ही रहता है। जो अपने में धर्म तो आत्मा का शुद्ध स्वभाव ही है (प्रोक्तं च जिन उक्तयं) जैसा जिनेन्द्र ही रमण करता है, लीन रहता है,ज्ञान ही ज्ञान से शोभायमान है। जिसका शद्ध परमात्मा ने कहा वैसा कहते हैं। स्वभाव त्रिकाली है जो हमेशा अपने में ही रहता है, वह शुद्धात्मा जो चैतन्य स्वरूपी विशेषार्थ- यहाँ पहले तो सद्गुरु किसे कहते हैं ? कौन होते हैं ? उनका रत्नत्रयमयी है। ऐसे निजशुद्धात्मा की साधना, आराधना, उपासना में ही रत रहते हैं स्वरूप बताया जा रहा है। जो ज्ञान, ध्यान, तप, साधना में ही लीन रहते हैं जो धर्म ऐसे सद्गुरू होते हैं। * का उपदेश देते हैं। साधु तो बहुत होते हैं, गुरू बहुत थोड़े होते हैं। जिनके अंतर में इसी बात को रत्नकरण्ड श्रावकाचार में समन्तभद्राचार्य कहते हैं संसार के दुःखों की पीड़ा लगती है, वह तो स्वयं उससे छूट ही रहे हैं और जगत के . विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । भव्य जीव भी क्यों न इससे मुक्त हो जायें ऐसी करुणा उनके अन्तर में बहती है ज्ञानध्यान तपो युक्तस्तपस्वीस प्रशस्यते॥१०॥ ८. और जैसा जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है वैसे शुद्ध आत्म धर्म का उपदेश जगत के जीवों जो पांच इन्द्रियों के विषयों की आशा-वांछा से रहित, छह काय के जीवों के को देते हैं वह सद्गुरू कहलाते हैं। घात करने वाले आरम्भ से रहित, अन्तरंग-बहिरंग समस्त परिग्रह से रहित हो जिसे ज्ञान ही ज्ञान का अवलम्बन है, अन्तर में ज्ञान स्वभावी आत्मा और तथा ज्ञान, ध्यान और तप में लीन रहता है। ऐसा तपस्वी सच्चा गुरू ही प्रशंसनीय 5 बाहर में जिनवाणी का स्वाध्याय, मनन, चिन्तन, मात्र इतना ही कार्य है। जो तीनों कुज्ञानों से मुक्त हो गया अर्थात् कुमति, कश्रत, कुअवधि ज्ञान छट गये, अब तो यहाँ कोई प्रश्न करे कि जो अपने ज्ञान ध्यान में लीन रहते हैं। शुद्धात्मा की ही सुमति, सुश्रुत और सुअवधि का आधार है। जिसकी तीनों शल्ये मिथ्या, माया, साधना आराधना उपासना में रत रहते हैं। उनसे हमारा क्या संबन्ध है, उनसे हमें निदान भी बिला गई हैं । मिथ्यात्वादि से तो छूट ही चुका है। जिसे अपनाशुद्धात्म क्या लाभ मिला? स्वरूप हमेशा दिखाई देता रहता है। इसके साथ संसार के दु:खों का भी विचार इसका समाधान सद्गुरू तारण स्वामी आगे की गाथाओं में करते हैं- चलता रहता है कि देखो इस जीव ने अपनी जरा सी भूल की, इसने अपने आत्म न्यानेन न्यानमालंब्यं,कुन्यानं त्रिविधि मुक्तयं । स्वभाव को नहीं जाना जो सच्चा धर्म है, इसके कारण कैसे जन्म-मरण के दुःख मिथ्या माया न दिस्टते, संमिक्तं सुद्ध दिस्टितं ॥१८॥ भोगे। चारों गति नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गति में कैसे-कैसे दुःख भोगे और हमेशा भयभीत चिन्तित रहा। यह संसारी प्राणी भी इस सच्चे धर्म अपने आत्म संसारे तारनं चिंते, भव्य लोकैक तारकं । 5 स्वभाव को जाने बिना कसे दुःखी हो रहे हैं। यह भी अपने आत्म स्वभाव को जान लें। धर्मस्य अप्प सद्भाव, प्रोक्तं च जिन उक्तयं ॥१९॥ तो सब सुखी हो जायें, मुक्त हो जायें। देखो जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है कि अपना अन्वयार्थ- (न्यानेन न्यानमालंब्यं) ज्ञान ही ज्ञान का जिनको अवलम्बन है शुद्ध स्वभाव ही धर्म है। बाहर में कोई क्रिया धर्म नहीं है। यह सभी भव्य जीव अपने । अर्थात् ध्यान में अपने ज्ञानानंद स्वभाव में लीन रहते हैं तथा ज्ञान में अपने आत्म स्वरूप का बोध कर लें। इसके लिये सभी भव्य जीवों को अपने आत्म स्वरूप की। स्वरूप का चिन्तवन करते हैं (कुन्यानं त्रिविधि मुक्तयं) तीनों प्रकार के कुज्ञान से महिमा बताते हैं, संसार के दु:ख बताते हैं, परमात्म स्वरूप का बोध कराते हैं। स्वयं poato.come
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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