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________________ श्री आवकाचार जी द्रोपदी को चीर बढ़ायो, सीता प्रति कमल रचायो । अंजन से किये अकामी, दुःख मेटो अन्तरयामी ॥ पार्श्वनाथ स्तोत्र में प्रार्थना की गई है कि महासंकटों से निकारे विधाता, सवै इसी प्रकार - नाथ मोहि जैसे बने वैसे तारो, उपरोक्त से प्रगट होता है कि जैन कर्ता-धर्ता ईश्वर का रूप दे दिया है। दरिद्रीन को द्रव्य के दान दीने, अपुत्रीन को तू भले पुत्र कीने । संपदा सर्व को देही दाता ।। मोरी करनी कछु न विचारो । तीर्थंकरों को उनके अनुयायियों ने (जैन मूर्तिपूजा में व्याप्त विकृतियाँ) इस प्रकार की अनेक बातें हैं, अनेक कारण हैं, जिनसे हम वास्तविक धर्म को भूल बैठे हैं और विपरीत मान्यता लोकमूढ़ता आदि दोषों में फंस गये हैं। यह देवपूजा भी इसी प्रकार की मान्यता है। हम विवेक से काम लें, वस्तु स्वरूप को समझें, सत्य-असत्य का निर्णय करें और सही धर्म मार्ग पर चलकर आत्म कल्याण करें, मानव जीवन को सफल बनायें। छहढाला में कहा है दौल समझ सुन घेत सयाने, काल वृथा मत खोवे। यह नरभव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहीं होवे ॥ यहां कोई प्रश्न करे कि ऐसी स्थिति में हम क्या करें, जबकि चारों तरफ से सामाजिक, व्यवहारिक, साम्प्रदायिक, सांसारिक बंधनों में जकड़े हुए हैं, न चाहते हुए भी करना पड़ता है, इनसे छूटने का उपाय क्या है ? इसका समाधान है- सद्गुरु की शरण, सत्संग और पुरुषार्थ करो तो छूट सकते हो। यहां फिर प्रश्न है कि गुरु में भी सद्गुरू, कुगुरू आदि का झगड़ा है ? उसका समाधान है कि हां गुरू में भी सद्गुरू, कुगुरू, अगुरू आदि होते हैं। इनके स्वरूप को जानो, उनसे बचो और सद्गुरू का शरण गहो तो इन बन्धनों से छूट सकते हो। फिर प्रश्न है कि इनका स्वरूप क्या है ? सर्वप्रथम यहां सद्गुरू कैसा होता है उसके स्वरूप का वर्णन तारण स्वामी आगे कर रहे हैं, उसके बाद कुगुरू का स्वरूप बतायेंगे । संमिक गुरु उपाद्यंते, मिक्तं सास्वतं धुवं । लोकालोकंच तत्वार्थ, लोकितं लोक लोकितं ॥ ६५ ॥ SYAA AAAAAN FAN ART YEAR. ५३ गाथा ६६-६७ ऊर्ध आर्ध मध्यं च, न्यान दिस्टि समाचरेत् । सुद्ध तत्व स्थिरी भूतं न्यानेन न्यान लंकृतं ॥ ६६ ॥ सुद्ध धर्म च सद्भावं सुद्ध तत्व प्रकासकं । सुद्धात्मा चेतना रूपं, रत्नत्रयं लंकृतं ।। ६७ ।। अन्वयार्थ - (संमिक गुरु उपाद्यंते) सच्चे गुरु उपासना करते हैं (संमिक्तं सास्वतं धुवं) सम्यक् अर्थात् निज शुद्धात्मा की जो शाश्वत है ध्रुव है (लोकालोकं च तत्वार्थं) लोकालोक में जो एकमात्र प्रयोजनभूत तत्व है (लोकितं लोक लोकितं ) जो समस्त लोक को देखता जानता है। (ऊर्ध आर्ध मध्यं च) तीनों लोक और तीनों काल में (न्यान दिस्टि समाचरेत्) जो ज्ञानदृष्टि सम्यक् ज्ञान का ही व्यवहार आचरण करते हैं (सुद्ध तत्व स्थिरी भूतं ) शुद्ध आत्मीक तत्व में निश्चल रमण करते हुए (न्यानेन न्यान लंकृतं) ज्ञान ही ज्ञानमय शोभायमान रहते हैं। (सुद्ध धर्मं च सद्भावं) निज शुद्धात्म भाव जो अपना स्वभाव है (सुद्ध तत्व प्रकासकं ) उस शुद्ध तत्व का ही अनुभव करते हैं (सुद्धात्मा चेतना रूपं) शुद्धात्मा जो चैतन्य स्वरूपी है (रत्नत्रयं लंकृतं) तथा रत्नत्रय से अलंकृत हैं अर्थात् सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान सम्यक्चारित्रमयी है। ऐसे निज शुद्धात्म तत्व की ही साधना आराधना उपासना करते हैं। बिशेषार्थ- यहाँ सच्चे गुरू के स्वरूप का वर्णन चल रहा है। गुरू अर्थात् मार्गदर्शक । गुरू पद वह बीच की कड़ी है जो स्वयं आत्मा से परमात्मा बनने की ओर बढ़ रहा हो तथा जीवों को अपने परमात्म स्वरूप का ज्ञान करावे । परमात्मा बनने मुक्त होने की विधि बतावे । व्यवहार में ज्ञान देने वाले को गुरू कहते हैं। जिससे कुछ सीखते हैं उसे भी गुरू कहते हैं। परमार्थ में सच्चा गुरू वह है जो स्वयं मुक्ति मार्ग पर चल रहा हो और अन्य भव्य जीवों को मुक्ति का सम्यक्मार्ग बतावे। जिसकी कथनी करनी एक हो । निश्चय और व्यवहार में सम्यक् आचरण हो, जो स्वयं ऊपर उठ चुका हो, पाप परिग्रह विषय कषाय से हट गया हो । संसारी प्रपंच से मुक्त हो गया हो जो किसी प्रकार के सामाजिक, व्यवहारिक, सांसारिक, राजनैतिक बन्धन में न बंधा हो, साम्प्रदायिकता से ऊपर उठ गया हो। जिसका जाति-पांति का भेदभाव मिट गया हो, जिसका सब जीवों के प्रति ु
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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