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________________ समय आहार नाम बराबर oक श्री श्रावकाचार जी गाथा- १८७ संसार में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव रूप पंच परावर्तन चलता है, इस मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति मिथ्यात्व से परिपूर्ण है (संमिक्तंसुद्धलोपन) शुद्ध सम्यक्त्व पंच परावर्तन रूप संसार में काल अपना विशेष महत्व रखता है। इस कालचक्र का अर्थात् अपने शुद्धात्म स्वरूप को भूला हुआ है (संसार सरन संगते) संसार अर्थात् छह कालों से युक्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के द्वारा भरत और ऐरावत क्षेत्र में , धन, शरीर, परिवार, विषयादि के आश्रय लगा हुआ है, रंजायमान हो रहा है, इससे जीवों के आयु, काय, बुद्धि की वृद्धि-हानि होती रहती है। बीस कोडाकोड़ी सागर का (अनादि भ्रमते जीवा) अनादिकाल से यह जीव भ्रमण कर रहा है। एक कल्पकाल होता है, उसके दो भेद हैं-१.उत्सर्पिणी-जिसमें जीवों के ज्ञानादि विशेषार्थ-संसार अर्थात् चार गति,चौरासी लाख योनियों में यह जीव दु:ख की वृद्धि होती है। २. अवसर्पिणी-जिसमें जीवों के ज्ञानादि का हास होता है। भोगता हआ अनादिकाल से क्यों भ्रमण कर रहा है? यह प्रश्न पूछने पर श्री गुरु भरत-ऐरावत क्षेत्र में काल चक्र का परिवर्तन तारण स्वामी अपूर्व समाधान कर रहे हैं-जैन दर्शन का मर्म, जीव के संसार में क्रम काल का| मनुष्यों की आयु ऊँचाई हैं भ्रमण का मूल कारण, अपने सत्स्वरुप का विस्मरण और यह शरीर ही मैं हूँ. यह प्रारंभ में अन्त में | प्रारंभ में | अन्त में शरीरादि मेरे हैं तथा मैं इनका कर्ता हूँ . ऐसी तीन प्रकार की मिथ्या मान्यता ही संसार परिभ्रमण का कारण है। यहाँ जैन दर्शन के मर्म को समझने के लिये गहराई सुषमा-|४ कोड़ा कोडी |३ पल्य २ पल्य |३ कोस |२ कोस | चौथे दिन बेर बराबर में उतरना होगा, अनादि से जीव का और कर्म का संयोग है अर्थात् मिले हुए हैं, सुषमा | सागर सुषमा |३ को. को. सा. २ पल्य |१पल्य २ कोस |१कोस । एक दिन अंतर बहेडा बराबर र कैसे मिले हुए हैं? जैसे -स्वर्ण और पाषाण। सुषमा-२ कोडा कोड़ी |१ पल्य |१ कोटी १ कोस |५००धनुष| एक दिन के अंतर आयला यहाँ कोई प्रश्न करे कि स्वर्ण और पाषाण तो पुद्गल, रूपी पदार्थ हैं मिल दुषमा | सागर पूर्व र सकते हैं; परंतु जीव चेतन और अरूपी.कर्म पदगल अचेतन और रूपी.यह कैसे दुषमा- ४२ हजार वर्षकम १ कोटी १२० वर्ष ५००धनुष ७ हाथ | रोज एक बार S मिले? इसका समाधान है कि जीव भी द्रव्य है और पुद्गल भी द्रव्य है और द्रव्य का | सुषमा |१को. को. सा. पूर्व एक विशेष गुण है, द्रवित होना अर्थात् एक दूसरे में मिल जाना, यद्यपि अपनी सत्ता दुषमा |२१हजार वर्ष |१२० वर्ष २० वर्ष ७ हाथ | कई बार 3 स्वरूप से सदा भिन्न रहते हैं, परंतु मिलने की शक्ति होने के कारण जीव चेतन ६. | दुषमा- २१ हजार वर्ष २० वर्ष १५ वर्ष २ हाथ | १ हाथ अतिप्रचुर वृत्ति, मनुष्य नग्ना, मछली आदि का आहार, मुनि अरूपी होता हुआ भी द्रव्य होने के कारण कर्म पुद्गल रूपी द्रव्य में मिला हुआ है। दुषमा आवकों का अभाव, धर्म व नाश यहाँ और विशेष महत्त्वपूर्ण बात समझने की है कि कर्मों में सबसे प्रबल सबका राजा असंख्यात अवसर्पिणी बीत जाने के बाद एक हुंडावसंर्पिणी काल आता है, मोहनीय कर्म है और उसके दो भेद हैं-दर्शन मोहनीय, चारित्र मोहनीय । दर्शन इस समय हुंडावसर्पिणी का पांचवां काल चल रहा है। सम्यक्दृष्टि जीव इन सब 5 मोहनीय की तीन प्रकृति हैं- मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति बातों का विचार कर इनसे छूटने की वैराग्य भावना भाता है। संयम, तप के मार्ग पर 3 मिथ्यात्व, यह जीव के दर्शन गुण का घात करती हैं और जीव इन तीनों में पूरा का आगे बढ़ता है, जबकि संसारी मिथ्यादृष्टि जीव इसी चक्र में घूमता रहता है। > पूरा डूबा है। डूबा है अर्थात् लिप्त एकमेक हो रहा है और अपने शुद्धात्म स्वरूप को यहाँ कोई प्रश्न करे कि ऐसे दुःख रूप भयानक संसार में यह जीव अनादि से भूला है, लोप कर दिया है। र क्यों भ्रमण कर रहा है ? इसके उत्तर में श्री जिन तारण स्वामी स्वयं आगे उसका यहाँ कोई प्रश्न करे कि जीव और पुद्गल द्रव्य होने के कारण मिले हैं ; परंतु, वर्णन करते हैं यह कर्म तो पुद्गल की अशुद्ध दशा है, कर्म कोई द्रव्य तो नहीं है तथा पुद्गल अनादि भ्रमते जीवा, संसार सरन संगते। परमाणु, जीव की अशुद्धता, विभाव परिणमन के निमित्त से कर्मरूप होते हैं और मिथ्या त्रिति संपून, संमिक्तं सुद्ध लोपनं ॥१८॥ जीव का विभाव परिणमन कर्मोदय के निमित्त से होता है. ऐसा निमित्त-नैमित्तिक । संबंध है, तो यह बताइये कि यह पुद्गल कर्म रूप कैसे हुआ और जीव अशुद्ध, अन्वयार्थ- (मिथ्या त्रिति संपून) तीन मिथ्यात्व अर्थात् मिथ्यात्व, सम्यक् , २हाथ
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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