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________________ PO4 श्री श्रावकाचार जी नारकी रहते हैं। यह व्यन्तर और भवनवासी देव मध्यलोक की पृथ्वी के वृक्ष, कोटर, यहाँ परम शुक्ल लेश्या होती है, यहाँ सम्यक्दृष्टि जीव ही जन्म लेते हैं, श्मशान और सूने घरों में भी रहते हैं। इनकी आयु कम से कम दस हजार वर्ष और इनकी आयु ३१ सागर से ३२ सागर तक होती है। अधिक से अधिक एक सागर होती है। पाँच अनुत्तर के नाम -१.विजय २.वैजयन्त ३.जयन्त ४.अपराजित ज्योतिषी देवों के पाँच भेद १५.सर्वार्थ सिद्धि। १.सूर्य, २. चन्द्रमा, ३. ग्रह,४.नक्षत्र, ५.प्रकीर्णक (तारे)। यह आकाश के मध्य यहाँ परम शुक्ल लेश्या होती है, यहाँ एक भवावतारी सम्यकदृष्टि जीव ही भाग में रहते हैं, इनके विमान होते हैं, इनकी आयु एक पल्य होती है। भवनवासी, आते हैं, यहाँ की आयु ३३ सागर होती है। यहाँ से जाने के बाद मनुष्य भव से जीव व्यन्तर और ज्योतिषी इन तीन निकायों में मिथ्यादृष्टि जीव ही होते हैं। सीधे मोक्ष जाते हैं। वैमानिक देव- इनमें कल्पवासी देवों के सोलह स्वर्ग होते हैं। आगे नव ग्रैवेयक, देव, नारकी, तिर्यंच यह कोई भी सीधे मोक्ष नहीं जा सकते,एक मात्र मनुष्य नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमान हैं। जगत में तीन लोक कहलाते हैं-अधोलोक, भव ही ऐसा है, जहाँ से जीव सीधे मोक्ष जा सकते हैं,जाते हैं। मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक। अधोलोक में-सात नरक। मध्यलोक में- नन्दीश्वर पवित्र वैक्रियक शरीर के धारी देव कभी भी मनुष्यों के अपवित्र औदारिक द्वीप, भरत क्षेत्र आदि मनुष्य और तिर्यंचों के रहने के स्थान हैं। ऊर्ध्वलोक शरीर के साथ काम सेवन नहीं करते । देवों के मांस, मदिरा आदि का सेवन नहीं में-वैमानिक देवों के सोलह स्वर्ग, नवग्रैवेयक,नवअनुदिश, पाँच अनुत्तर और इनके होता। देवों को कंठ से झरने वाला अमृत का आहार होता है। कल्पवृक्षों से उनकी अन्त में सिद्ध शिला है, जहाँ सिद्ध मुक्त जीव रहते हैं, यहीं तक लोकाकाश है, सब इच्छाओं की पूर्ति होती है। देवों में संतति की उत्पत्तिगर्भ द्वारा नहीं होती तथा इससे आगे आलोकाकाश है। यहाँ ऊर्ध्व लोक का वर्णन चल रहा है। उनका शरीर वीर्य और दूसरी धातुओं से बना हुआ नहीं होता । उनका वैक्रियक कल्पवासी सोलह स्वर्ग के नाम -१. सौधर्म, २. ईशान, ३. सानत्कुमार, शरीर होता है और किसी भी रूप होने की विक्रिया होती है। केवल मन की काम ४. माहेन्द्र, ५. ब्रह्म, ६. ब्रह्मोत्तर, ७. लान्तव, ८. कापिष्ट, ९. शुक्र, भोग रूप वासना तृप्त करने के लिये वह यह उपाय करते हैं। नीचे के देवों की १०. महाशुक्र,११. सतार, १२. सहसार,१३. आनत, १४.प्राणत, १५. आरण, वासना तीव्र होती है तथा मानसिक दुःख से दुःखी रहते हैं। हमेशा दूसरे देवों की १६. अच्युत। ऋद्धि, समृद्धि देखकर झुरते रहते हैं और मृत्यु से पूर्व छह माह पहले माला मुरझा सोलह स्वर्ग के देव कल्पवासी देव कहलाते हैं, इनके सोलह स्वर्ग विमान जाने से बहुत विकल्पित दुःखी होते हैं। देवगति में सब देव एक समान नहीं होते, होते हैं,यहाँ मिथ्यादृष्टि और सम्यक्दृष्टि दोनों ही प्रकार के जीव होते हैं,यहाँ की वहाँ भी ऊँच-नीच का भेदभाव और पुण्य-पाप के उदयानुसार सारी व्यवस्था होती आयु दो सागर से लेकर बाईस सागर तक होती है, यहाँ तक देव और देवी दोनों है है। इस प्रकार संसारी, मिथ्यादृष्टि जीव कहीं भी सुखी नहीं रहता और कहीं भी सुखी प्रकार के जीव होते हैं,स्वर्गों में कोई नपुंसक नहीं होता। यहाँ सब पीत, पद्म,शुक्ल १ नहीं हो सकता ; क्योंकि जिसकी दृष्टि बाहर पर की तरफ पराधीन है, वह कैसे सुखी लेश्या वाले होते हैं। इससे आगे कल्पातीत देव विमान होते हैं। * हो सकता है, कहा भी है-" पराधीन सपनेहु सुख नाहीं"। नव ग्रैवेयक के नाम -१. सुदर्शन, २. अमोघ, ३. सुप्रबुद्ध, ४. यशोधर, सुख तो एक मात्र अपने निज स्वभाव में है, अपने आत्मस्वरुप का श्रद्धान २५. सुभद्र, ६. विशाल,७. सुमन, ८. सोमन, ९. प्रीतिंकर। 5 सम्यक्दर्शन ही सुख का मूल आधार है इसलिये सद्गुरु इस मनुष्य भव में जीवों ७ नवग्रैवेयक में शुक्ललेश्या होती है, यहाँ तक मिथ्यादृष्टि जीव भी जाते हैं, को जगाते हैं, अपना आत्महित करने सुखी होने का मार्ग बताते हैं - इनकी आयु २२ सागर से ३१ सागर तक होती है। जे त्रिभुवन में जीव अनंत, सुख चाहँ दुखत भयवन्त । नवअनुदिश के नाम-१. आदित्य, २. अर्चि, ३. अर्चिमाली, ४. वेरोचन, तारौं दु:खहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणाधार ॥ ५. प्रभास, ६. अर्चिप्रभ, ७. अर्चि मध्य, ८. अर्चिरावर्त, ९. अर्चिर्विशिष्ठ। ताहि सुनो भविमन थिर आन,जो चाहो अपनो कल्याण ॥
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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