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________________ ७ YOU श्री आचकाचार जी गाथा-१७ SOO त्यागी-साधु होवे, तो वह तो दूर से ही खिलता कमल जैसा प्रसन्न, हंसमुख दिखाई है, निरन्तर उसी के विकल्प चलते हैं, प्राप्त करने के लिये बड़ी-बड़ी योजनायें देगा, उसका चेहरा चमकता हुआ प्रफुल्लित रहेगा । कषाय, राग-द्वेष, ईर्ष्या, बनती हैं। इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति नहीं होने तक खाना, पीना, सोना छूट जाता। बैर-विरोध सम्यक्दृष्टि त्यागी साधु के जीवन में हो ही नहीं सकते। जिन्हें सम्यक्दर्शन , है, रात-दिन उसी के विकल्प चलते हैं, बड़ी आकुलता, पीड़ा, वेदना, दु:ख होता नहीं हुआ और जो बाहर से संयम तप कर रहे हैं, त्यागी साधु बने हैं, उनकी दशा है। इस प्रकार यह विषय भोगों के दुःख बहुत ही दुष्ट खतरनाक होते हैं, यह मरने कैसी भी कुछ भी हो सकती है। यहाँ तो सम्यकदृष्टि ज्ञानी की बात बताई जा रही भी नहीं देते, जीने भी नहीं देते, रात-दिन चिंतित दु:खी रखते हैं, यह महान । है, उसकी दशा का वर्णन किया जा रहा है कि वह संसार शरीर भोगों को कैसा अनर्थकारी हैं। मानता है। विषय भोगों की आदत ही व्यसन कहलाती है। किसी भी विषय की लत आगे भोगों के स्वरूप का कथन करते हैं - पड़ जाती है, वह फिर सहज में नहीं छूटती.यह अनर्थ कराती है। धर्म का, आत्म भोर्ग दुषं अती दुस्टा, अनर्थ अर्थ लोपितं । S हितका लोप करने वाली है। विषयों की चाह, धन और धर्म दोनों को नष्ट करने वाली एहै, जीते जी संसार में दु:ख दुर्गति और वेदना भी कराती है, मरने पर नरक और संसारे सवते जीवा, दारुनं दुषभाजन ॥१७॥ 2 निगोद के दुःख भोगना पड़ते हैं। इससे ही चारों गति रूप संसार में भ्रमण करना अन्वयार्थ- (भोगं दुषं अती दुस्टा) भोग दुःखदाई अति दुष्ट हैं (अनर्थं अर्थ पड़ता है, जहाँ दारुण दु:ख, अति भयानक कष्ट भोगना पड़ते हैं। चारों गति में कैसे लोपित) अनर्थ करने वाले, अर्थ, प्रयोजन आत्मा के हित का लोप करने वाले हैं , दु:ख हैं, इसका वर्णन करते हैं(संसार सवते जीवा) इन्हीं के कारण यह जीव चार गति चौरासी लाख योनि रूप १.तियंचगति-सर्वप्रथम तो यह जीव निगोद में है रहता है, जहाँ एक क्षुद्र संसार में परिभ्रमण करता है तथा (दारुनं दुष भाजन) दारुण दु:ख, अति भयानक , ९ शरीर में असंख्यात निगोदिया जीव रहते हैं। जो एक स्वास में अठारह बार कष्ट भोगता है। 3 जन्मते-मरते रहते हैं और इस प्रकार ऐसे ही अनन्त काल तक रहना पड़ता है। वहाँ विशेषार्थ- भोग अर्थात् पाँचों इन्द्रियों के विषय, कान से अच्छे मधुर प्रिय से निकलकर स्थावर काय-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति में असंख्यात समय, शब्द और स्वर सुनना, आँखों से सुन्दर मनोहर पदार्थों को देखना, नाक से सुगंधित अनन्त काल तक वेदना दु:ख भोगते हुए रहना पड़ता है। पृथ्वीकाय की आयु बाईस वस्तु को सूंघना, मुख से स्वादिष्ट प्रिय पदार्थों को खाना तथा बोलना, शरीर से 5 हजार वर्ष होती है, जिसमें अन्तर्मुहूर्त में १२०२४ बार जन्म-मरण करना पड़ता है, चलना-फिरना, अच्छे वस्त्रादि पहिनना, सुन्दर वस्तुओं का भोग करना यह विषय इसी प्रकार वनस्पतिकाय की आयु दस हजार वर्ष होती है, जिसमें अन्तर्मुहूर्त में कहलाते हैं और इनको भोगने की लालसा-वासना मन में होती है। यह विषय १८०३६ बार जन्म-मरण करना पड़ता है। जलकाय कीआयु सात हजार वर्ष होती जितने भोगने में आते हैं, उतनी ही कामना-वासना बढ़ती जाती है, इनकी कभी पूर्ति है. इसमें भी अन्तर्मुहूर्त में १२०२४ बार जन्म-मरण होता है। वायुकाय की आयु और तृप्ति नहीं होती। जो चीज एक बार भोगने में आ जाती है, उसकी और बार-बार * तीन हजार वर्ष होती है. जिसमें अन्तर्मुहूर्त में १२०२४ बार जन्म-मरण होता है। भोगने की इच्छा होती है। एक बार जो भी विषय भोगने में आ जाते हैं उनको बार-बार अग्निकाय की आय तीन दिन की होती है, इसमें भी अन्तर्मुहूर्त में १२०२४ बार भोगने की चाह पैदा हो जाती है, अच्छे-अच्छे नये-नये पदार्थ भोगने की चाहजन्म-मरण होता है। इससे निकलकर बस पर्याय बहुत दर्लभ है जन्म-मरण होता है। इससे निकलकर त्रस पर्याय बहुत दुर्लभ है, जिसमें दो इन्द्रिय, निरन्तर बढ़ती जाती है। जैसे-अग्नि में तेल या घी डालो तो अग्नि और प्रज्वलित तीन इन्द्रिय,चार इन्द्रिय यह विकलत्रय कहलाते हैं, जो हमेशा विकल, दु:खी और होती है, वैसे ही जितने विषय-भोग भोगने में आते हैं, उनको भोगने की वासना, चाह भयभीत रहते हैं। दो इन्द्रिय की आयु-१२ वर्ष, तीन इन्द्रिय की आयु-४९ दिन निरन्तर बढ़ती जाती है। एक विषय भोगा, उसी समय उससे अच्छा दूसरा विषयभोगने और चार इन्द्रिय की आयु ६ माह होती है, यह लट, केंचुआ,इल्ली, चींटी, मख्खी, की इच्छा पैदा हो जाती है और यह कामना-वासना, इच्छा, चाह-दाह पैदा करती है, मच्छर आदि नाना प्रकार के होते हैं जिनकी दुर्दशा, दुर्गति प्रत्यक्ष आँखों के सामने इच्छित वस्तुन मिलने पर बड़ी आकुलता वेदना होती है फिर और कुछ सुहाता नहीं १६
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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