SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 04 श्री आपकाचार जी रत्नत्रय सिद्धान्त सूत्र Oo आदि के द्वारा मारने में प्रवृत्त होता है वह अनन्त जीवों का घात करता है। सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र अर्थात् रत्नत्रय रूपी नाव के द्वारा तैरता - दयालु श्रावक कच्चे अर्थात् जिसे आग पर नहीं पकाया गया है ऐसे है तथा दूसरों के तैरने को निमित्त है इसलिये यह जीव ही तीर्थ है। दूध, दही और बिना पकाये दूध से तैयार हुए मठे के साथ मिले हुए द्विदल अर्थात् मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी मूंग, उड़द आदि धान्य को न खावे तथा प्राय: करके पुराने द्विदल को न खावे क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के उपशम होने से तथा वर्षाऋतु में बिना दले हुए द्विदल को और पत्ते की शाक-भाजी को उपशम सम्यक्त्व होता है और इन सातों प्रकृतियों के क्षय होने से क्षायिक सम्यक्त्व नखावे। होता है। यह क्षायिक सम्यक्त्व केवलज्ञानी तथा श्रुतकेवली के निकट कर्म - नित्य शुद्ध चिदानन्द रूप कारण परमात्म स्वरूप जीव को भूमि के मनुष्य को ही उत्पन्न होता है। द्रव्यकर्म तथा भावकर्म के ग्रहण के योग्य विभाव परिणति का अभाव होने से क्षायिकसम्यक्त्व का प्रारम्भ तो केवली. श्रुतकेवली के निकट मनुष्य जन्म, जरा, मरण, रोग और शोक नहीं है। ॐ को ही होता है और निष्ठापन अन्य गति में भी होता है। - जिन्होंने वस्तु स्वरूप जान लिया है, जो सर्व सावद्य से दूर हैं, मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व के उदय का प्रभाव हो, सम्यक्त्व प्रकृति जिन्होंने स्व हित में चित्त को स्थापित किया है, जिनका सर्व प्रचार शांत हुआ का उदय हो, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ के उदय का अभाव हो है, जिनकी भाषा स्व-पर को हितरूप है, जो सर्व संकल्प रहित हैं, वे विमुक्त अथवा उनका विसंयोजन करके अप्रत्याख्यानावरण आदिक रूप से उदयमान पुरुष इस लोक में अवश्य ही मोक्ष के पात्र हैं। ? हो तब क्षायोपशमिक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। - जो सम्यक्दृष्टि समस्त कर्म, नोकर्म के समूह को छोड़ता है, उस सम्यक्दृष्टि मरकर द्वितीयादिक नरकों में नहीं जाता है, ज्योतिषी व्यन्तर सम्यक्ज्ञान की मूर्ति को सदा प्रत्याख्यान है और पाप समूह का नाश करने वाला भवनवासी देव नहीं होता है, स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होता, पाँच स्थावर, ऐसा सत्वारित्र उसे अतिशय रूप से है, भव-भव के क्लेश का नाश करने के विकलत्रय, असैनी, निगोद, म्लेच्छ, कुभोगभूमि इन सबमें उत्पन्न नहीं लिये उसे मैं नित्य वन्दन करता हूँ। 5 होता है। - स्वयं किये हुए कर्म के फलानुबन्ध को स्वयं भोगने के लिये तू अकेला सम्यक्दर्शन के शंकादिक अतिचार रहित परिणाम सो दर्शन विनय जन्म में तथा मृत्यु में प्रवेश करता है, अन्य कोई स्त्री, पुत्र, मित्रादि सुख-दुःख है। ज्ञान का संशयादि रहित परिणाम से अष्टांग अभ्यास करना सो ज्ञानविनय के प्रकारों में बिल्कुल सहायभूत नहीं होता। है। चारित्र को अहिंसादिक परिणाम से अतिचाररहित पालना सो चारित्रविनय चरण द्रव्यानुसार होता है और द्रव्य चरणानुसार होता है, इस प्रकार वे ई है। तप के भेदों का देखभालकर दोष रहित पालन करना सो तपविनय है। दोनों परस्पर अपेक्षा सहित हैं; इसलिये या तो द्रव्य का आश्रय करके अथवा तो जो पूजा महिमा आदि के लिये शास्त्र को पढ़ता है उसको शास्त्र का चरण का आश्रय करके मुमुक्षु मोक्षमार्ग में आरोहण करो। पढ़ना सुखकारी नहीं है। अपने कर्मक्षय के निमित्त जिन शास्त्रों को पढ़े उसको । क्रोध कषाय को क्षमा से, मान कषाय को मार्दव से, माया कषाय को ही सुखकारी है। ह आर्जव की प्राप्ति से और लोभ कषाय को शौच अर्थात् संतोष से जीतो। ध्यान परमार्थ से ज्ञान का उपयोग ही है। जो ज्ञान का उपयोग एक ज्ञेय 9) - जो तैरता है तथा जिससे तैरा जाता है उसको तीर्थ कहते हैं। यह जीव वस्तु में अन्तर्मुहूर्त मात्र एकाग्र ठहरता है सोध्यान है वह शुभ भी है और अशुभ
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy