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________________ 9 श्री आवकाचार जी जीव का किसी पर पदार्थ को इष्ट जानकर उसके प्रति प्रीति रूप परिणामों का होना राग है। माया, लोभ, हास्य, रति, तीन वेद- स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद रूप परिणाम और पर पदार्थों के प्रति आकर्षण, स्नेह, प्रेम, आसक्ति इत्यादि चारित्र मोहनीय कर्मोदय के समय निमित्त होने वाले जीव के चारित्र गुण विकारी परिणामों को राग कहते हैं। [D] जीव का किसी पर पदार्थ को अनिष्ट जानकर उसके प्रति अप्रीति रूप परिणामों का होना द्वेष है। क्रोध, मान, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और पर पदार्थों के प्रति घृणा, ईर्ष्या, जलन इत्यादि चारित्र मोहनीय कर्मोदय के समय निमित्त होने वाले जीव के चारित्र गुण के कषाय रूप विकारी परिणामों को द्वेष कहते हैं। मिथ्यादृष्टि की मर्यादा विकारी भावों तक है और ज्ञानी की मर्यादा शुद्ध भावों तक है लेकिन पर पदार्थों में ज्ञानी अथवा अज्ञानी कोई भी कुछ भी नहीं कर सकता। ऐसा जानकर अपनी आत्मा का आश्रय ले तो निज आत्मा की पहिचान हो । तत्व के आदर में सिद्ध गति अर्थात् मोक्ष है और तत्व के अनादर में निगोद गति अर्थात् संसार है। सिद्ध गति में जाते हुए बीच में एक-दो भव हों, उनकी गिनती नहीं है और निगोद में जाते हुए बीच में अमुक भव हों उनकी गिनती नहीं है: क्योंकि त्रस का काल थोड़ा है और निगोद का काल अनन्त है । तत्व के निरादर का फल निगोद गति और आदर का फल सिद्ध गति है । मिथ्यात्व असंयम, कषाय और योग यह चार बन्ध अर्थात् संसार के कारण हैं और सम्यक्दर्शन, संयम, अकषाय और अयोग यह चार मोक्ष के कारण हैं। श्रुत देवता या जिनवाणी के प्रसाद से ही हमें यह ज्ञात होता है। कि पूजने योग्य कौन हैं और क्यों हैं ? तथा उनकी पूजा हमें किस प्रकार की करनी चाहिये इसलिये जिनवाणी भी पूज्य है। अगर शास्त्र न होते तो हम देव के स्वरूप को भी नहीं जान सकते थे, फिर जिनवाणी स्याद्वाद नय गर्भित है । 20 Your YA YA YES. २६४ रत्नत्रय सिद्धान्त सूत्र [] जो भक्ति पूर्वक श्रुत को पूजते हैं वे परमार्थ से जिनदेव को ही पूजते हैं। क्योंकि सर्वज्ञ देवने श्रुत और देव में थोड़ा सा भी भेद नहीं कहा है। • शुभ भाव पुण्य के लिये और अशुभ भाव पाप के लिये होता है इसलिये भावों में विकार होने पर धीर पुरुष को जिन शासन के अनुराग से रक्षा करना चाहिये। तप का कारण होने से ज्ञान पूज्य है और ज्ञान के अतिशय का कारण होने से तप पूज्य है तथा मोक्ष का कारण होने से ज्ञान और तप दोनों पूज्य हैं। [] जघन्य पात्र, मध्यम पात्र, उत्तम पात्र तथा कुपात्र को दान देने वाला मिथ्यादृष्टि जघन्य भोगभूमि, मध्यम भोगभूमि, उत्तम भोगभूमि में, भोग बाकी बचे पुण्य से यथायोग्य देव होता है। [D] सम्यकदृष्टि सुपात्र दान से होने वाले पुण्य के उदय से उत्तम भोगभूमि, महार्द्धिक कल्पवासी देव और चक्रवर्ती आदि पदों को यथेष्ट भोगकर मोक्ष पद को पाता है। मुनि को उत्तम पात्र, अणुव्रती श्रावक को मध्यम पात्र, सम्यकदृष्टि को जघन्य पात्र, सम्यक्दर्शन से रहित व्रती को कुपात्र तथा सम्यक्दर्शन और व्रत से रहित को अपात्र कहते हैं। • जो रत्नत्रय से रहित है, मिथ्या धर्म में आसक्त है वह कितना भी घोर तप करे फिर भी वह कुपात्र है। जिसमें न तप है, न चारित्र है, न कोई उत्कृष्ट गुण है उसे अपात्र जानों उसको दान देना व्यर्थ है। [D] अपने कल्याण के इच्छुक गृहस्थ को अपनी तथा देश, काल, स्थान और सहायकों की अच्छी तरह समीक्षा करके व्रत ग्रहण करना चाहिये और ग्रहण किये हुए व्रत को प्रयत्न पूर्वक पालना चाहिये । प्रमाद से या मद में आकर यदि व्रत में दोष लग जाये तो तत्काल प्रायश्चित लेकर पुन: व्रत ग्रहण करना चाहिये । [0] दयालु श्रावकों को सदा सभी अनन्त काय वनस्पति त्यागनी चाहिये क्योंकि उनमें से जो एक भी संख्या वाली अनन्त काय वनस्पति को खाने
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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