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________________ POOR श्री श्रावकाचार जी गाथा-४२५ दिखते वह विकथा और राग में रंजायमान रहता है, परिणामों में इन्द्रिय विषयों का का दोष आता है अत: ब्रह्मचर्य व्रत का निर्दोष पालन करने के लिये शील की नव बाड़ राग रखता है, यदि वह राग सहित बात कहे, राग की बातें सुने, जगत के प्रपंच में का पालन करना आवश्यक है। शील व्रत की नौ बाड़-१. स्त्रियों के सहवास में न अपने को उलझाए, स्त्रियों से राग वर्द्धक वार्तालाप करे, एकांत में स्त्रियों से बोले.. रहना, २. स्त्रियों को प्रेम रुचि से न देखना, ३. स्त्रियों से रीझ कर मीठे-मीठे वचन आत्मा की शुद्धि का,शुद्ध भावों का ध्यान न रखे तो वह ब्रह्मचर्य प्रतिमा का खण्डन नबोलना,४.पूर्व काल में भोगे हुए भोगों का चिंतवनन करना.५.गरिष्ठ आहार नहीं ७ करने वाला है,यह निश्चित समझना कि उसका व्रत चला जायेगा। २ करना, ६. श्रृंगार विलेपन आदि कर शरीर संदर नहीं बनाना.७. स्त्रियों की सेज पर । इन सब निमित्तों से हटकर, चित्त को एकाग्र कर शुद्ध आत्मा का ध्यान करता नहीं सोना, बैठना, ८. काम कथा नहीं करना, ९. भरपेट भोजन नहीं करना। है वहीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा है इसी बात को यहां कहते हैं ८. कुशील के दस दोष टालना-१.शरीर श्रृंगार करना, २. पुष्ट रस सेवन करना, चितं निरोधतं जेन, सुद्ध तत्वं च सार्धयं । , ३.गीत नृत्य वादित्र सुनना देखना बजाना, ४. स्त्रियों की संगति करना, ५. स्त्रियों S में किसी प्रकार काम भोग सम्बंधी संकल्प करना, ६. स्त्रियों के मनोहर अंगों को तस्य ध्यान स्थिरीभूतं, बंध प्रतिमा स उच्यते॥ ४२५॥ देखना,७. स्त्रियों के अंगों को देखने का संस्कार हदय में रखना.८.पूर्व में भोगे हए अन्वयार्थ- (चितं निरोधतं जेन) जो अपने चित्त को एकाग्र करके (सुद्धतत्वं भोगों का स्मरण करना.९. आगामी काल में काम भोगों की वांछा करना, १०.वीर्य च सार्धय) शद्धात्म तत्व की साधना करता है (तस्य ध्यान स्थिरीभूतं) उसके ध्यान पतन करना होना। इन दोषों को टालने वाला ही ब्रह्मचारी होता है। में स्थिर हो जाता है (बंभ प्रतिमा स उच्यते) उसे ब्रह्मचर्य प्रतिमा कहते हैं। स्त्रियों के वशवर्तीपना होने से अंतरंग में दाह और पाप की वृद्धि होती है, सुख विशेषार्थ- ब्रह्मचर्य प्रतिमा का मूल अभिप्राय यह है कि जो अपने चित्त का शांति का नाश होता है; अतएव जो धार्मिक पुरुष, स्त्री सम्बंधी पराधीनता छोड़कर निरोध कर अर्थात् समस्त संकल्प-विकल्पों से हटकर एकाग्र होकर अपने शुद्धात्म 5 दुर्जय काम को जीतकर ब्रह्मचर्य पालते हैं वही सच्चे साहसी सुभट हैं। युद्ध में प्राण स्वरूप की साधना करता है, ब्रह्म स्वरूप में लीन रहता है वही सम्यक्दृष्टि ज्ञानी विसर्जन करने वाले शूर उनके सामने तुच्छ हैं:क्योंकि ऐसे योद्धा शूर काम द्वारा जीते ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी है। उसका व्यवहारिक आचरण तो स्वयमेव शुद्ध और सात्विक हुए हैं अतएव इस जगज्जयी काम सुभट को जिन ब्रह्मचारियों ने जीता, वेहीमोक्षमार्गी होता है, शारीरिक विषय भोगों से विरक्त, मन-वचन-काय से शील धर्म पालता महासुभट धन्य हैं। इस ब्रह्मचर्य के प्रभाव से वीर्यान्तराय कर्म का विशेष क्षयोपशम है। ब्रह्मचर्य व्रत की पांचोंभावनाओं का पूरा ध्यान रखता है, अतिचार रहित ब्रह्मचर्य होकर आत्मशक्ति बढ़ती है, तप उपवास आदि परीषह सहज ही जीती जाती हैं। का पालन करता है, जिसकी दृष्टि में अपने ब्रह्मस्वरूपका सदैव स्मरण ध्यान रहता गृहस्थ आश्रम सम्बंधी आकुलता घटती है, परिग्रह की तृष्णा घटती है, इन्द्रियां वश है, अब्रह्म अर्थात् शरीर आदि पर्यायों की तरफ जिसका लक्ष्य नहीं रहता, में होती हैं। यहां तक कि वाक् शक्ति स्फुरायमान हो जाती हैं। ध्यान करने में अडिग खान-पान, रहन-सहन में साधारण सामान्य स्थिति में उदासीन रहता है। एकान्त चित्त लगता है और अतिशय पुण्य बन्ध के साथ-साथ कर्मों की निर्जरा विशेष होती में रहता है, यदि घर में रहे तो अपनी रहने और शयन आदि की व्यवस्था गृहस्थी के है जिससे मोक्ष नगर निकट हो जाता है। प्रपंच से अलग रखता है। सादा शुद्ध भोजन और जहां तक संभव हो एक समय ही ब्रह्म स्वरूप में रमण करने वाला ही सच्चा ब्रह्मचारी है, जिसकी वचनव काय ० करता है। इस प्रतिमा में अभी आरंभ का त्याग नहीं है,सातवीं प्रतिमाधारी श्रावक 5 कीचेष्टा से भी ब्रह्मरस टपकता हो,जोपांचों इन्द्रियों का विजयी होकर वैराग्यवान १ पहले के सभी नियमों को पालता हआ आस-पास के ग्रामों में बाहर जाकर भी धर्म हो, रस नीरस जो आहार प्राप्त हो उसमें संतोषी हो, अल्पाहारी हो, आरंभ यद्यपि प्रचार कर सकता है। इसे जीवधारी सवारी को छोड़कर अन्य वाहनों का त्याग नहीं कुछ करता है परन्तु त्याग के सन्मुख हो, निरन्तर मोक्ष की भावना में वर्तता हो, है, यह मध्यम पात्र में भी मध्यम पात्र है। प्राणी मात्र का हितैषी हो, परोपकार में लीन हो, आत्मधर्म व शील संयम धर्म की 2 मूर्छा पूर्वक मन-वचन-काय की कुशील सेवन रूप प्रवृत्ति होने से कुशील प्रभावना करने वाला हो, वैराग्यमय वस्त्रों का धारी हो, अल्प से अल्प वस्त्र धारण
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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