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________________ 61 ७० श्री आवकाचार जी अतिचारों का त्याग करता है और अपने ब्रह्म स्वरूप में रमण करने के लिये ब्रह्मचर्य की दीक्षा में आरूढ़ होता है वह ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी है, इसी बात को आगे कहते हैंबंभ अभं तिक्तं च सुद्ध दिस्टि रतो सदा । सुद्ध दर्सन समं सुद्धं, अबंधं तिक्त निस्चयं ॥ ४२० ॥ जय चितं धुवं निस्वय, ऊर्ध आधे च मध्ययं । जस्य चितं न रागादि, प्रपंचं तस्य न पस्यते ।। ४२१ ।। अन्वयार्थ (बंभ अबंभं तिक्तं च) ब्रह्मचर्य - अब्रह्म अर्थात् कुशील का त्याग करना है अथवा पर पर्याय की ओर नहीं देखना (सुद्ध दिस्टि रतो सदा) हमेशा अपने शुद्धात्म स्वरूप को देखना उसी में रत रहना (सुद्ध दर्सन समं सुद्धं) शुद्ध सम्यक्दर्शन के समान शुद्ध भाव में रहना (अबंभं तिक्त निस्चयं) अब्रह्म भाव, पर्याय दृष्टि छोड़ना ही निश्चय से ब्रह्मचर्य प्रतिमा है। (जस्य चितं धुवं निस्चय) जिसके चित्त में अपने ध्रुव स्वभाव का निश्चय श्रद्धान है (ऊर्ध आर्धं च मध्ययं) जो तीनों काल और तीनों लोक में अपने ब्रह्मस्वरूप को देखता है (जस्य चितं न रागादि) जिसके चित्त में कोई राग-द्वेष मोह नहीं होते (प्रपंचं तस्य न पस्यते) और उसको कोई प्रपंच भी दिखलाई नहीं देते अर्थात् वह किसी प्रपंच में नहीं रहता वह ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी है। विशेषार्थ - ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी श्रावक पूर्णतः अब्रह्म का त्यागी अर्थात् स्व स्त्री और समस्त पर स्त्रियों से संबंध छोड़ देता है तथा हमेशा अपने शुद्धात्म स्वरूप में रत रहता है। अपने भावों की सम्हाल रखता है, शुद्ध भाव में रहता है, जिसके चित्त में अपने ध्रुव स्वभाव का निश्चय श्रद्धान है, जो तीनों काल, तीनों लोक में अपने ब्रह्म स्वरूप को देखता है, जिसके चित्त में कोई राग-द्वेष, मोह आदि विकारी भाव नहीं होते तथा किसी प्रपंच में भी नहीं रहता । शरीर संभोग संबंध तो पूर्णतया छोड़ ही देता है, जिसके भावों में मलिनता विकारी भाव भी नहीं रहता वह ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी है। सप्तम ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी सम्यकदृष्टि श्रावक हमेशा अपने ब्रह्मस्वरूप में रत रहता है, जिसका पर पर्याय, शरीरादि से राग छूट गया है और वह अपने ध्रुव स्वभाव का निश्चय श्रद्धानी पर्याय दृष्टि से विमुख, संसारी प्रपंचों से मुक्त ब्रह्म स्वरूप की साधना करता है। यदि विकथा, व्यसन आदि में रत रहता है, रागादि भावों में बहता है तो वह ु SYA YA YA YES. गाथा ४२०-४२४ बाहर से ब्रह्मचारी बना हुआ भी ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी नहीं है इसी बात को कहते हैंविकहा विसन उक्तं च चक्र धरनेंद्र इन्द्रयं । नरेन्द्र विभ्रमं रूपं वर्तते विकहा उच्यते ।। ४२२ ।। व्रत भंगं राग चिंतंते, विकहा मिथ्यात रंजितं । अबंभं तिक्त बंभं च, बंभ प्रतिमा स उच्यते ।। ४२३ ।। जदि बंभचारिनो जीवो, भाव सुद्धं न दिस्टते । विकहा राग रंजंते, प्रतिमा बंभ गतं पुनः ॥। ४२४ ॥ अन्वयार्थ- (विकहा विसन उक्तं च) सात व्यसनों के सम्बन्ध में राग वर्द्धक चर्चा करना विकथा है (चक्र धरनेंद्र इन्द्रयं) चक्रवर्ती धरणेन्द्र इन्द्रों के (नरेन्द्रं विभ्रमं रूपं) राजा महाराजाओं के वैभव, रूप आदि मोह राग को बढ़ाने वाले भोग आदि की (वर्नते विकहा उच्यते) चर्चा करना, सुनना विकथा कहलाती है। ( व्रत भंगं राग चिंतंते) राग भाव का चिंतन करने से ब्रह्मचर्य व्रत भंग हो जाता है (विकहा मिथ्यात रंजितं ) चारों विकथाओं को, मिथ्यात्व में रंजायमान होने को (अबंभं तिक्त बंभं च) और अब्रह्म को छोड़कर जो ब्रह्मचर्य का पालन करता है (बंभ प्रतिमा स उच्यते) उसे ब्रह्मचर्य प्रतिमा कहते हैं । (जदि बंभचारिनो जीवो) यदि ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी जीव के (भाव सुद्धं न दिस्टते) शुद्ध भाव दिखाई नहीं देते (विकहा राग रंजंते) विकथा और राग में रंजायमान रहता है (प्रतिमा बंभ गतं पुनः ) तो उसकी ब्रह्मचर्य प्रतिमा भंग हो गई ऐसा समझना चाहिये । विशेषार्थ - ब्रह्मचारी खोटी कथाओं से विरक्त रहता है। जुआं खेलना, मांस भक्षण, मदिरा सेवन, वेश्या गमन, चोरी करना, शिकार खेलना, पर स्त्री सेवन करना इन सात व्यसनों में राग बढ़ाने वाली कथाओं को यह न तो करता है, न सुनता है तथा इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती, नारायण, राजा-महाराजा आदि की मोह वर्द्धक राग को बढ़ाने वाली कथाओं को न कहता है, न सुनता है, यदि इन विकथाओं को करता है और उनके राग का चिंतवन करता है तो व्रत भंग हो जाता है और मिथ्यात्व •में लिप्त हो जाता है इसलिये अब्रह्म की चर्चा छोड़कर जो अपने ब्रह्म स्वरूप में रहता है वह ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी है; परन्तु यदि ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी के भाव शुद्ध नहीं २३६
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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