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________________ Puccesses 04 श्री आपकाचार जी गाथा-३१०,१११ NLOo कारण उनको अनेक प्रपंच रचना पड़ते हैं, पूजा विधान आदि के अनेक आडम्बर मूढ़ा देवलि देउ णवि णवि सिलि लिप्पाइ वित्ति। करना पड़ते हैं। इस प्रकार की कुदेवया अदेव की पूजाभक्ति से अन्तरंग मिथ्यात्व दृढ देहा देवलि देउ जिणु सो बुज्नहि समवित्ति॥४४॥ होता है, मिथ्यादृष्टि ऐसी अशुद्ध देव की पूजा भक्ति किया करते हैं। इससे राग-द्वेष, हे मूढ ! देव किसी देवालय में विराजमान नहीं हैं, इसी तरह किसी पत्थर लेप मोह, मिथ्यात्व बढ़ता है जिससे घोर पाप बांधकर दुर्गति का पात्र होना पड़ता है। 8 अथवा चित्र में भी देव विराजमान नहीं हैं। जिनदेव परमात्मा तो इस देह देवालय में इसी बात को योगीन्दुदेव परमात्म प्रकाश में कहते हैं - रहते हैं इस बात को तू समाचित्त से समझ। देउण देउले णवि सिलए णवि लिप्पइणवि चित्ति। तित्थइ देउलि देउ जिणु सव्वु वि कोइ भणेइ। अखउ णिरंजणु णाणमउ सिउ संठिउ सम वित्ति॥१/१२३॥ देहा देउलि जो मुणइ सो बुहको वि हवेइ॥४५॥ देवालय मन्दिर में देव नहीं है, पाषाण की प्रतिमा में भी देव नहीं है, लेप में भी सब कोई कहते हैं कि जिनदेव तीर्थ में और देवालय में विद्यमान हैं परन्तु जो नहीं है ,चित्राम की मूर्ति में भी नहीं है, देव तो अविनाशी है निरंजन है ज्ञानमयी है जिनदेव को देह देवालय में विराजमान समझता है, ऐसा पंडित कोई विरला ही होता है। ऐसा निज परमात्मा इस देह देवालय में तिष्ठ रहा है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द बोधपाहुड़ में कहते हैंमणु मिलियउ परमेसरह परमेसरु वि मणस्स। सपराजंगम देहादसण णाणेण सद्ध चरणाणं। बीहि वि समरसि हूवा पुज्ज पड़ावउँ कस्स ॥१/१२३॥ णिग्गंथ वीयराया जिनमग्गे एरिसा पडिमा॥१०॥ मन भगवान आत्मा से मिल गया और परमात्मा भी मन से मिल गया दोनों जो आत्मा दर्शन ज्ञान चारित्र से शुद्ध स्थूल शरीर में स्थित है निग्रंथ वीतरागी एकमेक हो गये, अब किसकी पूजा करूँ, किसको पुंज चढ़ाऊँ, यहाँ पूजा करना ही है, उसे जिनमार्ग में प्रतिमा कहते हैं। समाप्त हो गया। आगे जिनबिम्ब का निरूपण करते हैंइसी बात को और स्पष्ट करते हुए योगीन्दुदेव योगसार में कहते हैं जिणबिर्व णाणमय संजम सुख सुवीयराय च। ताम कुतित्थई परिभमइ धुत्तिम ताम करेइ। ज देइ दिक्ख सिक्खा कम्मक्खय कारणे सुद्धा ॥१६॥ गुरुहु पसाएं जाम णवि अप्पादेउ मुणेइ ॥४१॥ जो जिन अर्थात् अरिहंत सर्वज्ञ का प्रतिबिंब उन जैसा ही हो उसे जिनबिंब जब तक जीव गुरु प्रसाद से आत्मदेव को नहीं जानता,तभी तक वह कुतीर्थों कहते हैं, जो ज्ञानमयी हो, संयम से शुद्ध हो, वीतराग हो, जो कर्म के क्षय का में भ्रमण करता है और तभी तक वह धूर्तता करता है। निश्चय से कारण हो जो जगत के जीवों को शिक्षा (धर्मोपदेश) दीक्षा (धर्ममार्ग पर तित्थाहिं देवलि देउणविइम सुइकेवलि वुत। ९. चलने का मार्ग) देता हो वह जिनबिंब कहलाता है। देहा देवलि देउ जिणु एहउ जाणि णिरुत्तु ॥४२॥ इस प्रकार कुन्दकुन्द आदि सभी आचार्यों ने इन कुदेव-अदेव आदि को मानने श्रुत केवली ने कहा है कि तीर्थों में, देवालयों में देव नहीं है, जिनदेव तो देह पूजने का निषेध किया है परन्तु मूढ मिथ्यादृष्टि संसारी इस बात को न मानकर ऐसे देवालय में विराजमान है इसे निश्चित समझो। कुदेव-अदेव आदि की पूजा मान्यता करके अपने संसार का कारण बढ़ाता है, देहा देवलि देउ जिणु जणु देवलिहिं णिएइ। 5 यही अशुद्ध देवपूजा है, इसको करने से संसार में ही रुलना पड़ता है। हासउ महु पडिहाइ इहु सिद्धे भिक्ख भमेइ॥४३॥ यहाँ कोई प्रश्न करता है कि हमें देव का दर्शन पूजन करना है और वर्तमान में जिनदेव देह देवालय में विराजमान हैं परन्तु जीव (ईंट पत्थरों के) देवालयों में देव नहीं हैं तो हम उन जैसी पाषाण प्रतिमा बनाकर दर्शन पूजन करते हैं इसमें उनके दर्शन करता है यह मुझे कितना हास्यास्पद मालूम होता है, यह बात ऐसी ही क्या दोष है ? है कि जैसे कोई पुरुष सिद्ध हो जाने पर भिक्षा के लिये भ्रमण करे। उसका समाधान करते हैं कि भाई! जैन दर्शन में जिनेन्द्र परमात्मा ने धर्म का aorreckoneriorres
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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