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________________ 4 श्री श्रावकाचार जी गाथा-३१०,३११ POOO प्राचीन षट्कर्म थे- सामायिक, स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और जा रहा है। सच्चे देव-वीतरागी सर्वज्ञ हितोपदेशी अरिहंत और सिद्ध परमात्मा होते ७ कायोत्सर्ग, मुनि और गृहस्थ दोनों इनका पालन करते थे। उनके स्थान में देवपूजा, हैं.जो संसार के जन्म-मरण और सर्व कर्मों से मुक्त हो गये, जिनका समस्त मिथ्यात्व, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान यह षट्कर्म हो गये और इनमें भी , मोह,राग-द्वेष समाप्त हो गया। जो पूर्ण हैं, आप्त हैं,जो अपने शुद्धात्मतत्वपरमानंद पूजन को विशेष महत्व मिलता गया। * में प्रतिष्ठित हो गये, वह सच्चे देव परमात्मा भगवान कहे जाते हैं। जो आत्मा अपने ७ वर्तमान में श्रावक के जो षट्आवश्यक कर्म प्रचलित हैं। उनका उल्लेख १ स्वरूप में स्थित हो गये.अपने सम्पूर्ण गुणों को अपने में प्रगट कर लिया वही आत्मा पद्मनन्दि पंच विंशतिका में इन शब्दों में हुआ है ॐ परमात्मा कहलाते हैं और निश्चय से प्रत्येक आत्मा स्वभाव से परमात्मा है। अपने देवपूजा गुरूपास्ति: स्वाध्यायः संयमस्तपः। स्वरूप को भूलने के कारण बहिरात्मा बना है, जिसने अपने स्वरूप को जान लिया दानं चेति ग्रहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने । हैं वह अन्तरात्मा अपने स्वभाव में स्थित होकर परमात्मा हो जाता है इसलिये अपने निश्चय आवश्यक तो शुद्ध धर्म परिणति है। ज्ञानी श्रावक के योग्य आंशिक आत्म गणों की आराधना कर उनको प्रगट करना ही सच्ची देवपूजा है। शद्धि निश्चय से भाव देव गुरु पूजा है। शास्त्रों का अध्ययन-मनन,पापों से विरति, जो इसको न जानते हैं. न मानते हैं और देवालय मंदिर तीर्थक्षेत्र आदि में इन्द्रिय निग्रह, इच्छाओं का विरोध और स्व-पर के अनुग्रह के लिये दानदि देना स्थापितधात पाषाण आदि की मनुष्यों द्वारा बनाई मूर्तियों को जिनमेंन चेतनपना है, व्यवहार आवश्यक है। नदेवत्वपना है जो प्रत्यक्ष ही अदेव हैं, उनको देव कहकर मानते पूजते हैं वह अशुद्ध श्री जिन तारण स्वामी ने वर्तमान प्रचलित षट्कर्मों में जो विपरीत मान्यता ८ देवपूजा करते हैं। यही गृहीत मिथ्यात्व अनन्त संसार परिभ्रमण का कारण है। इसमें और अशुद्धता चल रही है उसका स्वरूप बताते हुए स्पष्ट विवेचन किया है, तीन प्रकार की मान्यतायें होती हैं- कुदेव, अदेव और मिथ्यादेव। कुदेव उन्हें कहते जिसको समझकर मोक्षमार्गी को अपना सही मार्ग बनाना चाहिये। S है जो भवनवासी व्यन्तर ज्योतिषी वैमानिक देवों को देवमानकर पूजते हैं और उनसे आगे अशुद्ध षट्कर्मों में प्रथम अशुद्ध देव पूजा का स्वरूप बताते हैं - ६ अपनी सांसारिक कामनाओं वासनाओं की पूर्ति चाहते हैं वह कुदेव पूजा है। अदेव असुखं प्रोक्तस्वैव, देवलि देवपि जानते। उन्हें कहते हैं जो धातु पाषाण आदि की मूर्ति प्रतिमायें बनाकर लोगों द्वारा स्थापित क्षेत्रं अनंत हिंडते, अदेवं देव उच्यते ॥ ३१०॥ की जाती हैं उन्हें देव मानकर पूजते हैं, जिनमें कोई देवत्वपना नहीं है वह अदेव मिथ्या मय मूढ दिस्टीच,अदेवं देव मानते । पूजा है। जिसकी संसारी अज्ञानी मिथ्यादृष्टि नाना प्रकार से प्रपंच फैलाकर चमत्कार आदि की प्रसिद्धि करते हैं कि अमुक स्थान पर खोदो, यहाँ भगवान निकलेंगे, परपंचं जेन कृतं सार्थ, मानते मिथ्या दिस्टितं ॥३११॥ हमें स्वप्न दिया है, इनकी पूजा मान्यता करने से सब काम सिद्ध होंगे। धन, पुत्र, अन्वयार्थ- (असुद्धं प्रोक्तस्चैव) अशुद्ध देवपूजा वह कही गई है जो (देवलि परिवार बढ़ेगा, रोग शोकादि दूर होंगे। कहीं कोई चमत्कार बताकर लोगों को देवपि जानते) देवालय,मंदिर में देव को जानते हैं (षेत्रं अनंत हिंडते) अनंत क्षेत्र, फंसाकर पूजा मान्यता करते हैं। मिथ्यादेव-जो मनुष्य नाना प्रकार के भेष आदि तीर्थ स्थानों में भ्रमण करते हैं (अदेवं देव उच्यते) और अदेवों को देव कहते हैं। बनाकर नाचते कूदते हैं, उन्हें देव मानना मिथ्या देवपूजा है। इसे और स्पष्ट करते हैं (मिथ्या मय मूढ दिस्टीच) और मिथ्यात्व मय मूढ दृष्टि होते हैं जो (अदेवं देव कि जिनमें देवपना बिल्कुल नहीं है, ऐसे अदेवों को जो देव मानकर पूजते हैं वे मानते) अदेवों को अर्थात् पाषाण धातु आदि की मूर्तियों को देव मानते हैं (परपंचं वास्तव में संसार की वासनाओं में लिप्त होते हैं। वे अज्ञानी इस बात का बिना विचार जेन कृतं साध) जो नाना प्रकार से मिथ्या प्रचार कर चमत्कारादि प्रपंच फैलाते हैं किये कि इनमें देव के लक्षण सर्वज्ञता वीतरागता चेतनपना है या नहीं, रूढ़िगत (मानते मिथ्या दिस्टितं) इनको मिथ्यादृष्टि ही मानते हैं। मूढता के वशीभूत होकर चाहे जिस कुदेव को या अदेव को पूजने लग जाते हैं,उनकी विशेषार्थ- यहाँ अशुद्ध षट्कर्म में पहले अशुद्ध देवपूजा का स्वरूप बताया यह मूढ भक्ति मिथ्यात्व रूप है , मायाचार कपट से भरी हुई है। इस मूढ भक्ति के
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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