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________________ C २०७ ७ श्री आवकाचार जी वह उसकी बातों को स्वीकार कर ले तो वह पात्र, अपात्र कहा जाता है। नीच की संगति बड़ी अनिष्टकारी होती है, जो जीव मिथ्यादृष्टि कुगुरुओं की बातों में लग जाते हैं, उनके कहे अनुसार मान्यता करने लगते हैं, उनका जीवन ही नष्ट हो जाता है। जैसे विष के संयोग से दूध और घृत नष्ट हो जाता है इसी प्रकार मिथ्यादृष्टियों का संग बड़ा अनर्थकारी होता है, इनकी संगति से कई दुर्गुण मिथ्या मान्यतायें लग जाती हैं, जो सच्चे धर्म से च्युत कर देती हैं इसलिये बुद्धिमान ज्ञानीजनों को हमेशा ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवों का संग ही छोड़ देना चाहिये इसलिये दान देने और लेने में बड़े विवेक की आवश्यकता है, जरा सी बात, जरा सी श्रद्धा मान्यता में ही सब विपरीत हो जाता है। जो सच्चे तत्व के श्रद्धावान नहीं हैं, जिन्हें सम्यक्ज्ञान नहीं है, मात्र बाह्य भेष बना लिया है उनकी संगति से लाभ होने के बदले में हानि होना बहुत संभव है। उनके प्रभाव में आकर सच्चे श्रद्धावानों की श्रद्धा बहुधा बिगड़ जाती है तथा गुणों का नाश होकर अवगुणों की अर्थात् राग-द्वेषादि की उत्पत्ति हो जाती है। बहुधा कुसंगति से व्यसन और विषयों में आसक्ति हो जाती है, जिनकी संगति से सम्यक्त्व दृढ़ हो, उन्हीं का सत्संग करने ज्ञानदान लेने से सम्यक्त्वादि गुणों की वृद्धि होगी, यदि दातार सम्यक्त्व रहित है तो पात्र के भीतर उसके भावों का बातों का असर पड़ने से सम्यक्त्व भाव में बाधा हो जायेगी इसलिये विवेक पूर्वक ही दान देना और लेना चाहिये । इसी बात की सावधानी के लिये सद्गुरु तारण स्वामी आगे गाथाओं में और स्पष्ट करते हैं मिथ्याती संगते जेन, दुरगति भवति ते नरा । मिथ्या संग विनिर्मुक्तं, सुद्ध धर्म रतो सदा ।। २९३ ।। मिथ्या संग न कर्तव्यं, मिथ्या वास न वासितं । दूरेहि त्यजति मिथ्यात्वं, देसो त्यागं च तिक्तयं ॥ २९४ ॥ मिथ्या दूरेहि वाचंते, मिथ्या संग न दिस्टते । मिथ्या माया कुटुम्बस्य, तिक्ते विरचे सदा बुधै ॥ २९५ ।। मिथ्यातं परं दुष्यानी, संमिक्तं परमं सुषं । तत्र मिथ्या माया त्यक्तंति, सुद्धं संमिक्त सार्धयं ॥ २९६ ॥ अन्वयार्थ- (मिथ्याती संगते जेन) इसी प्रकार मिथ्यात्वी संसारासक्त की SYAA AAAAAN FAN ART YEAR. १७३ गाथा-२९३-२९६ संगति से (दुरगति भवति ते नरा) जीवों को दुर्गति में जाना पड़ता है अतः (मिथ्या संग विनिर्मुक्तं मिथ्या संग छोड़कर (सुद्ध धर्म रतो सदा) शुद्ध धर्म में सदा रत रहना चाहिये। ( मिथ्या संग न कर्तव्यं) जो मिथ्यात्वी कुगुरु हैं उनके साथ रहना, संग करना भी कर्तव्य नहीं है (मिथ्या वास न वासितं) ऐसे मिथ्यात्वी जहाँ रहते हों, वहाँ भी नहीं रहना चाहिये (दूरेहि त्यजंति मिथ्यात्वं) ऐसे मिथ्यात्वी और मिथ्यात्व को दूर से ही छोड़ देना चाहिये (देसो त्यागं च तिक्तयं) अगर देश भी छोड़ना पड़े तो छोड़ देना चाहिये। (मिथ्या दूरेहि वाचंते) ऐसे मिथ्यात्वी कुगुरुओं से दूर से ही बचकर रहना चाहिये (मिथ्या संग न दिस्टते) उनका संग भी नहीं देखना चाहिये ( मिथ्या माया कुटुम्बस्य) ऐसे मिथ्या मायाचारी करने वाले कुटुम्ब को (तिक्ते विरचे सदा बुधै) छोड़कर बुद्धिमानों को सदा बचकर दूर ही रहना चाहिये । (मिथ्यातं परम दुष्यानी) क्योंकि मिथ्यात्व परम दुःख की खानि है (संमितं परमं सुषं) सम्यक्त्व परम सुख रूप है (तत्र मिथ्या माया त्यक्तंति) इसलिये मिथ्या माया छोड़कर (सुद्धं संमिक्त सार्धयं) शुद्ध सम्यक्त्व की साधना करना चाहिये । विशेषार्थ यहां दान का प्रकरण चल रहा है, अव्रत सम्यकदृष्टि चार दान की भावना प्रभावना करता है, यह उसकी अठारह क्रियाओं में आवश्यक है, दान देने से भावों में निर्मलता आती है, लोभादि कषाय गलती है, पुण्य का बंध होता है इसलिये सत्पात्रों को दान देने की प्रवृत्ति रहती है और करुणा भाव से दुःखी भूखे अनाथों की सहायता करता है, दान देता है। आहार दान एक ऐसा दान है जो प्राणीमात्र को किसी भी भेदभाव के बिना दिया जा सकता है और इसमें अपनी भावनानुसार पुण्य का बन्ध होता है, अन्य दानों में विवेक पूर्वक देना योग्य है । यहां विशेष बात यह है कि श्रावक जिन पात्रों को आहार दान देता है और यदि वह पात्र कुपात्र अर्थात् बाह्य भेषधारी मिथ्यादृष्टि है और उनके द्वारा जो उपदेश ज्ञान दान दिया जाता है इसमें बुद्धिमान श्रावक को सावधान रहना चाहिये, उनकी किसी बात को नहीं मानना चाहिये। जैसे यह अदेवादि के पूजन दर्शन की बात करते हैं, नियम लेने को कहते हैं तो यह कभी स्वीकार नहीं करना चाहिये और ऐसों को आहार दान भी नहीं देना चाहिये। जहां गृहीत मिथ्यात्व का पोषण हो, सम्यक्त्व में दोष लगे, श्रद्धान में पराधीनता आवे, ऐसे मिथ्यादृष्टि कुगुरुओं का संग भी नहीं करना
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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