SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ nene १ श्री आवकाचार जी सुद्धं च) ऐसा ही पात्र और दाता जहां सुद्ध होता है (उक्तं दान जिनागमं ) इसी को जिनागम में सच्चा दान कहा गया है। विशेषार्थ- पात्र दान में, पात्र शुद्ध हो और दाता शुद्ध हो, ऐसा शुभ योग मिले तो ऐसा दान मुक्ति का कारण बनता है। जैसा भगवान आदिनाथ को राजा श्रेयांस ने दान दिया और तद्भव उनसे पूर्व ही मोक्ष चले गये। शुद्ध सम्यदृष्टि दाता और पात्र हो वही अपूर्व दान है और ऐसे दान का बड़ा भारी माहात्म्य है। उत्तम पात्र, धर्म का साधक है उनको दान देने से उनके परिणामों में स्थिरता होती है, उनके संयम का साधन होता है, यह उपकार तो दाता द्वारा, पात्र का होता है और पात्र द्वारा दाता का यह उपकार होता है कि वह उसको धर्मोपदेश देते हैं, जिससे वह धर्म का विशेष अनुरागी हो जाता है। जहाँ दातार का भाव शुद्ध है सम्यक्दर्शन से पूर्ण है और पात्र भी शुद्ध भाव धारी सम्यक दृष्टि है वहाँ अपूर्व निर्मलदान होता है। दोनों के भाव अति पवित्र हो जाते हैं। यह दान सदा ही भावों में अति विशुद्धता करने वाला है। प्रमोद भाव से दान देने वाले के भावों में इतनी विशुद्धता होती है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। जहाँ वीतरागी साधु उत्तम पात्र होते हैं और जो सद्गृहस्थ उन्हें भक्तिपूर्वक आहार के लिये पड़गाहन करते हैं, उस समय उनके भावों में इतनी विशुद्धता, निर्मलता होती है कि चारों तरफ जय-जयकार मच जाती है, देखने वालों की आत्मा गद्गद् हो जाती है, धर्म की बड़ी अपूर्व महिमा है। सम्यक्रदृष्टि पात्र के दर्शन करने मात्र से अपूर्व शांति और आनंद की अनुभूति होती है फिर सत्संग और दानादि की प्रवर्तना से तो अपूर्व ही आनंद आता है। उत्तम पात्र हो और उत्तम दाता हो यही दान जिनागम में श्रेष्ठ कहा गया है। जैसे चन्दना द्वारा भगवान महावीर को दान दिया गया। सम्यक् दृष्टि उत्तम मध्यम जघन्य पात्र के द्वारा कभी दाता को जरा भी असुविधा विकल्प नहीं होता; क्योंकि वह अपनी-अपनी पात्रतानुसार आचरण करते हैं। उत्तम पात्र वीतरागी साधु तो उद्दिष्ट के त्यागी होते हैं, उन्हें तो जो श्रावक ने अपने लिये बनाया हो उससे निस्पृह वृत्ति से आहार लेकर चले जाते हैं । जहाँ सम्यक्दृष्टि मोक्षगामी दातार हो और मोक्षगामी महात्मा पात्र हो वह दान महान है। यदि पात्र सम्यकदृष्टि है, आत्म साधक मोक्षमार्गी है तो वह सत्पात्र दाता के द्वारा दिया हुआ दान ही ग्रहण करता है । अपात्र मिथ्यादृष्टि का दान नहीं लेता, यदि अपात्र मिथ्यादृष्टि का दान लेता है तो वह भी अपात्र कहा जाता है, इसी बात को आगे की गाथाओं में कहते हैं ७ SYA YAAAA FAR AS YEAR. गाथा-२९०-२९२ मिथ्या दिस्टी च दानं च, पात्रं न गृहिते पुनः । जदि पात्र गृहिते दानं, पात्रं अपात्र उच्यते ।। २९० ॥ मिथ्या दान विषं प्रोक्तं, घृत दुग्धं विनासये । नीच संगेन दुग्धं च गुणं नासन्ति जत्पुनः ।। २९९ ।। मिथ्या दिस्टी संगेन, गुणं च निर्गुनं भवेत् । मिथ्या दिल्टी जीवस्य, संगं तिजंति सदा बुधैः ॥ २९२ ॥ अन्वयार्थ - (मिथ्या दिस्टी च दानं च) मिथ्यादृष्टि के द्वारा दिये हुए ज्ञान दान को (पात्रं न गृहिते पुनः) पात्र ग्रहण नहीं करते हैं (जदि पात्रं गृहिते दानं ) यदि पात्र उस ज्ञान दान को ग्रहण कर ले तो (पात्रं अपात्र उच्यते ) वह पात्र, अपात्र कहा जाता है। १७२ (मिथ्या दान विषं प्रोक्तं) मिथ्या दान विष रूप कहा गया है (घृत दुग्धं विनासये) जैसे विष के संयोग से घी दूध भी वैसा ही हो जाता है (नीच संगेन दुग्धं च ) इसी प्रकार नीच की संगति से पात्र के दूधवत् (गुणं नासन्ति जत्पुनः) सभी गुण नष्ट हो जाते हैं । (मिथ्या दिस्टी संगेन ) मिथ्यादृष्टि की संगति से (गुणं च निर्गुनं भवेत्) पात्र के गुण, औगुण हो जाते हैं (मिथ्या दिस्टी जीवस्य ) इसलिये मिथ्यादृष्टि जीवों का (संगं तिजंति सदा बुधैः) संग बुद्धिमानों को हमेशा के लिये छोड़ देना चाहिये । बिशेषार्थ - दान देने वाले को दाता और दान लेने वाले को पात्र कहते हैं और इसका परस्पर में अदान-प्रदान रूप संबंध होता है। चार दान में से जो जिसे जो दान देवे वह दाता कहलाता है और दान लेवे वह पात्र कहलाता है। सद्गृहस्थ श्रावक किसी साधु त्यागी को आहार दान देता है उस समय आहार देने वाला दाता और आहार लेने वाला पात्र कहलाता है। जब साधु त्यागी गृहस्थ श्रावक को ज्ञानदान देता है तब यह दाता और वह पात्र कहलाता है। श्री तारण स्वामी ने यहाँ दोनों की अपेक्षा 9 कथन किया है, एक पक्षीय दान की प्ररूपणा नहीं की । अव्रत सम्यक् दृष्टि श्रावक यदि किसी को आहारदान देता है तो वह उसकी भावनानुसार पुण्य बंध करता है तथा जब वह ज्ञानदान लेता है तब उसे सतर्क रहना चाहिये क्योंकि यदि ज्ञान देने वाला मिथ्यादृष्टि कुपात्र है तो जो लेने वाला पात्र है, उस बात को स्वीकार नहीं करता, यदि 5
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy