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________________ श्री आवकाचार जी माया असुद्ध परिणामं, असास्वतं संग संगते । दुस्ट नटं च सद्भावं, माया दुर्गति कारनं ।। १६२ ।। माया अनंतानं कृत्वा, असत्ये राग रतो सदा । मन वचन काय कर्तव्यं, मायानंदी च ते जड़ा ।। १६३ ।। माया आनंद संजुक्तं, अनृतं अचेत भावना । मन वचन काय कर्तव्यं, दुर्बुधि विस्वास दारुनं ॥ १६४ ॥ माया अचेत पुन्यार्थ, पाप कर्म च विधते । सुद्ध दिस्टिन पर्यंते, मिथ्या माया नरयं पतं ।। १६५ ।। अन्वयार्थ - (माया अनृत रागं च) माया कषाय जगत के असत्य झूठे पदार्थों में राग करने से होती है (असास्वतं जल विंदुवत्) जगत का स्वरूप क्षणभंगुर पानी के बुलबुले के समान है (धन यौवन अभ्र पटलस्य) धन यौवन मेघ पटल के समान विला जाने वाला है (माया बंधन किं करोति) ऐसी माया का बन्धन क्यों करते हो अर्थात् ऐसी माया कषाय में क्यों बंधते हो ? ( माया असुद्ध परिणाम) माया कषाय अशुद्ध परिणाम है (असास्वतं संग संगते) यह नाशवान पदार्थों की संगति, चाह से पैदा होती है (दुस्ट नस्टं च सद्भावं ) यह दुष्ट है और अपने आत्म स्वभाव को नष्ट करने वाली है (माया दुर्गति कारनं ) यह माया कषाय दुर्गति का ही कारण है। (माया अनंतानं कृत्वा) अनन्तानुबंधी माया कषाय करने से (असत्ये राग रतो सदा) हमेशा संसारी मायाजाल झूठे प्रपंच में ही रत रहना पड़ता है (मन वचन काय कर्तव्यं) और इस संसारी मोह माया के जाल को मन वचन काय से अपना कर्तव्य मान लेने वाला ( मायानंदी च ते जड़ा) वह मायानंदी अर्थात् संसार में आनंद मानने वाला मूर्ख जड़ अर्थात् अज्ञानी है। (माया आनंद संजुक्तं ) माया के आनंद में लीन होने पर (अनृतं अचेत भावना) मिथ्यात्व शरीरादि अचेतन पदार्थों के भाव होने लगते हैं (मन वचन काय कर्तव्यं) इन्हीं मिथ्या भावों में मन वचन काय से अपना कर्तव्य मानकर लगना (दुर्बुधि विस्वास दारुनं) महान विश्वास घात खोटी बुद्धि है। ( माया अचेत पुन्यार्थं ) माया कषाय के आधीन अर्थात् मायाचारी सहित शरीर SYA GARAAN FÅR A YEAR. १०० गाथा - १६१-१६५ X धनादि द्वारा पुण्य संचय करना चाहता है (पाप कर्म च विधते) परन्तु उससे पुण्य नहीं होता और पाप कर्म ही बढ़ते हैं (सुद्ध दिस्टि न पस्यंते) जब तक अपने आत्म स्वरूप की अनुभूति नहीं होती, शुद्ध दृष्टि नहीं होती (मिथ्या माया नरयं पतं) इस मिथ्यात्व और माया कषाय सहित नरक में ही जाना पड़ता है। माया है क्या, यह इस जगत से एक झूठा राग है । जल बुदबुदों के तुल्य रे, जिसका अनित्य सुहाग है ॥ यौवन अशास्वत है अमृत है, जलद पटल समान है। आश्चर्य माया जाल में, क्यों फंस रहा अज्ञान है ॥ नश्वर परिग्रह सृजन करता, जो मलिन परिणाम है। उस अशुभतम परिणाम के दल का ही माया नाम है । उत्पन्न करती है यह माया, रे अनिष्ट स्वभाव है। होता है दुर्गति में अरे, जिस हेतु से सद्भाव है। जो जीव मायाचार में रहता सदा आसक्त है। मिथ्यात्व का वह मूढ़ बन जाता, निसंशय भक्त है ॥ मन के वचन के काय के कर्तव्य से धो करथली । मायात्व में ही चूर रहता है निरंतर वह छली । जिस जीव का संसार केवल एक मायाचार है। मिलता उसे मिथ्यात्व में ही हर्ष अपरम्पार है । मन वचन क्रम के योग्य, इस संसार में जो कर्म है । उनसे विमुख हो वह कुमति करता सदैव अधर्म है ॥ जो पुण्य कर्मों में भी करता, मूढ़ मायाचार है। वह नर बढ़ाता बस समझ लो, पाप का संसार है ॥ जो शुद्ध आत्मीक तत्व का करता नहीं है चिन्तवन । वह अधम मायावी नियम से नर्क में करता गमन ॥ (चंचलजी) विशेषार्थ - यहाँ अनन्तानुबंधी कषाय के अंतर्गत माया कषाय का वर्णन चल रहा है। छल कपट,बेईमानी विश्वासघात, झूठ, धोखा, फरेब को मायाचारी कहते हैं । माया शल्य भी होती है, जिसका पूर्व में वर्णन आ चुका है। माया का सद्भाव पर पदार्थों की चाह से प्रारंभ होता है। संसार में इस जीव को नाम, काम,
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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