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________________ श्री पंडित पूजा सार सिद्धान्त - (१) “मैं ध्रुव तत्व शुद्धात्मा हूँ" ऐसा अनुभूति युत निर्णय होना ही सम्यक्ज्ञान है, जिसे ऐसा निर्णय होता है, वह पंडित ज्ञानी है! (२) आत्मा जीव है, चेतन स्वरूप है, उपयोग से विशिष्ट है, प्रभु है,कर्ता है, भोक्ता है, शरीर के बराबर है, अमूर्तिक है किन्तु कर्म से संयुक्त है। इस आप्त वचन से होने वाले ज्ञान को आगम कहते हैं। आगम को जानने वाला पंडित होता है। (३) पूजा का अर्थ पुजाना, पूर्ति करना। पूजा का अभिप्राय- इष्ट की प्राप्ति करना। (४) पूजा के दो प्रकार हैं। द्रव्य पूजा-भाव पूजा । द्रव्य पूजाअर्थात् आदर पूर्वक खड़े होना, नमस्कार आदि करना-वचन से गुणों का स्मरण करना, तवरूप आचरण करना। भाव पूजा अर्थात्मन से गुणों का स्मरण करना, तदरूप आचरण करना “पूजा पूज्य समाचरेत्॥ (५) द्रव्य श्रुत से भाव श्रुत होता है और भाव श्रुत से भेदज्ञान होता है। भेदज्ञान से स्वानुभूति होती है और स्वानुभूति से केवलज्ञान होता है। (६) अविद्या अर्थात् अज्ञान के अभ्यास से उत्पन्न हुये संस्कारों द्वारा मन पराधीन होकर चंचल-रागी-द्वेषी-बन जाता है। वही मन श्रुत ज्ञान के संस्कारों द्वारा स्वयं ही आत्म-स्वरूप-स्व तत्व में स्थिर हो जाता है। (७) केवलज्ञान ही मोक्ष का साक्षात कारण है और वह केवलज्ञान स्वानुभूति से ही होता है इसलिये श्रुत की आराधना करना चाहिये। (८) श्रुत ज्ञान ही केवल एक ऐसा ज्ञान है जो स्वार्थ भी है, परार्थ भी है, शेष चारों ज्ञानस्वार्थ ही हैं, शब्द प्रयोग के बिना दूसरों का संदेह दूर नहीं किया जा सकता। (९) श्रुत के उपयोग की विधि-बुद्धिशाली मुमुक्षु को गुरु से श्रुत [95] को ग्रहण करके तथा युक्तियों से परिपक्व करके और उसे स्वात्मा में निश्चल रूप से आरोपित करके अनेकान्तात्मक अर्थात्- द्रव्य रूप और उत्पाद व्यय धीव्यात्मक वस्तु का निश्चय करना चाहिए। (१०) श्रुत ज्ञान का बड़ा महत्व है, उसे केवलज्ञान के तुल्य कहा है। श्रुत ज्ञान और केवलज्ञान दोनों ही सर्व जीवादि तत्वों के प्रकाशक हैं, दोनों में भेद सिर्फ प्रत्यक्षता और परोक्षता का है। (११) ज्ञान में स्नान करने वाला ज्ञानी अपने समस्त कर्ममलादि का प्रक्षालन कर देता है। (१२) मुमुक्षु यदि एक क्षण के लिये भी निर्विकल्प हो जाये. यह क्या है ? कैसा है ? किसका है ? इत्यादि अन्तर्जल्प से सम्पृक्त भावना जाल से रहित हो जाये, तो उसके सारे कर्म बंधन टूट जाते हैं। (१३) अज्ञानी जीव करोड़ों जन्म में जितना कर्म खपाता है, तीन गुप्तियों का पालक ज्ञानी उसे आधे निमिष मात्र में क्षय कर देता है। (१४) सम्यक्ज्ञान सूर्य के समान है। जैसे सूर्य के उदय होते ही रात्रि विला जाती है, वैसे ही ज्ञान के उदय होते ही सारे दोष मल मिथ्यात्वादि कर्म विला जाते हैं। (१५) ध्यान को छोड़कर शेष सभी तपों में स्वाध्याय ही ऐसा तप है, जो उत्कृष्ट शुद्धि में हेतु है। (१६) सम्यक्दर्शन और सम्यक्ज्ञान के सम्पूर्ण होने पर भी सम्यक्चारित्र की पूर्णता न होने पर परम मुक्ति, भगवत सत्ता परमात्म पद नहीं मिल सकता। (१७) जैसे सम्यक्वर्शन के बिना ज्ञान-अज्ञान होता है, वैसे ही सम्यक्ज्ञान के बिना चारित्र भी चारित्राभास होता है। (१८) अज्ञान-राग-द्वेष-मोह ही जीव के महान शत्रु हैं। [96]
SR No.009721
Book TitlePundit Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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