SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वभाव के विरुद्ध होने से आकुलता दुःख रूप लगते हैं। तथापि उस भूमिका में आये बिना नहीं रहते, जब तक पूर्ण शुद्धोपयोग द्वारा केवलज्ञान प्रगट न हो तब तक साधक की दशा तीन विशेषताओं वाली होती है। (१) अपने ध्रुव स्वभाव शुद्धात्म तत्व के प्रति पूरा जोर रहता है । दृढ़ अटल श्रद्धान होता है, जिसमें अशुद्ध तथा शुद्ध पर्यायांश की भी उपेक्षा रहती है। (२) शुद्ध पर्यायांश का सुख रूप अतीन्द्रिय आत्मानुभूति रूप वेदन होता है। (३) अशुद्ध पर्यायांश जिसमें शुभाशुभ, भाव, व्रत, तप, भक्ति आदि का समावेश है, दुःख रूप उपाधि रूप से वेदन होता है । मुनिराज को शुद्धात्म तत्व के उग्र आलम्बन द्वारा आत्मा में संयम प्रगट होता है, द्रव्य से परिपूर्ण महाप्रभु हूँ, भगवान हूँ - कृत कृत्य हूँ, मानते होने पर भी, पर्याय में तो पामर हूँ ऐसा महा मुनि भी जानते हैं । गणधर देव भी कहते हैं कि हे जिनेन्द्र ! मैं आपके ज्ञान को नहीं पा सकता। आपके एक समय के ज्ञान में समस्त लोकालोक तथा अपनी भी अनन्त पर्यायें ज्ञात होती हैं। कहाँ आपका अनंत द्रव्य पर्यायों को जानने वाला अगाध ज्ञान और कहाँ मेरा अल्प ज्ञान ? चार ज्ञान का धारी भी छदमस्थ है। केवलज्ञानी परमात्मा परमानन्द में सम्पूर्णतया परिणमित हो गये हैं। इस प्रकार प्रत्येक साधक द्रव्य अपेक्षा से अपने को भगवान मानता होने पर भी पर्याय अपेक्षा से ज्ञान, दर्शन, आनन्द वीर्य आदि पर्यायों की अपेक्षा से अपनी कमी जानता है और इस कमी को पुजाने, पूरा करने के लिए अपने इष्ट आराध्य निज शुद्धात्म देव की पूजा आराधना उपासना करता है। जिससे परमात्म पद प्रगट होता है। यही ज्ञान मार्ग की सच्ची पूजा की विधि है। जिसको जिनेन्द्र परमात्मा ने अपनी दिव्य ध्वनि में बताया द्वादशांग वाणी में जैसा वस्तु स्वरूप आया उसी अनुसार मैंने संक्षेप में वर्णन किया जो भव्य जीवों को कल्याणकारी महासुखकारी है। इस प्रकार ज्ञान मार्ग के पथिक अध्यात्मवादी साधकों का पूजा का विधान भगवान महावीर की शुद्ध आम्नाय, जैन दर्शन, द्रव्य की [93] स्वतंत्रता का प्रतिपादक वर्णन किया। इसमें किसी से भेदभाव, बैर विरोध नहीं है । सत्य वस्तु स्वरूप को बताना ही संतों का काम है, इसी उद्देश्य से वीतरागी संत श्री गुरु श्री जिन तारण तरण मंडलाचार्य महाराज ने पंडित पूजा का प्रतिपादन किया। जो भव्य जीव सत्यवस्तु स्वरूप को समझ कर इसका पालन करेंगे वह स्वयं आत्मा से परमात्मा बनेंगे । आत्म-साधना में मार्ग दर्शक आत्मबल बढ़ाने वाली सद्गुरु की वाणी के प्रति बहुमान पूर्वक अपनी अल्पमति से यह टीका की है। सद्गुरु के अभिप्राय और वस्तु स्वरूप को समझने की भावना से अपनी बुद्धि अनुसार आगम प्रमाण लिखने का प्रयास किया है। फिर भी अल्पज्ञतावश जो भूलचूक हो, उसे सद्गुरु तथा ज्ञानी जन क्षमा करें। य परात्मा स एवाहं, योऽहं स परमस्ततः । अहमेव मयोपास्यो, नान्यः कश्चिदितिस्थितिः ॥ अर्थ- जो परमात्मा है वह ही मैं हूँ तथा जो स्वानुभवगम्य मैं हूँ, वही परमात्मा है, इसलिये मैं ही मेरे द्वारा उपासना किया जाने योग्य हूँ, दूसरा कोई अन्य नहीं। इस प्रकार ही आराध्य - आराधक भाव की व्यवस्था है। (समाधि शतक- ३१) मणु मिलियउ परमेसरहँ, परमेसरु वि मणस्स । बीहि वि समरसि हूबाई, पुज्ज चडावउँ कस्स ॥ अर्थ- विकल्प रूप मन, भगवान आत्माराम से मिल गया और परमेश्वर भी मन से मिल गया तो दोनों ही के समरस होने पर मैं अब किसकी पूजा करूँ? (परमात्म प्रकाश १/१२३) [94]
SR No.009721
Book TitlePundit Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy