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________________ स्वरूप का ज्ञान होता है। जो वीतरागी, सर्वज्ञ, हितोपदेशी, अरिहन्त, सिद्ध परमात्मा होते हैं, वह सच्चे देव हैं, जो निर्ग्रन्थ, वीतरागी मोक्ष मार्गी साधु होते हैं वह सच्चे गुरु होते हैं। इनके बताये हुये मार्ग पर चलना ही इनकी सच्ची पूजा है । भव भ्रमण का अन्त लाने का मार्ग क्या है ? उसका सच्चा उपाय क्या है ? इसे समझना ही श्रेयस्कर है। यह कोई भी क्रियाकांड मोक्ष मार्ग नहीं है परन्तु पारमार्थिक आत्मा तथा सम्यग्दर्शन के स्वरूप का निर्णय करके, स्वानुभव करना यह मुक्ति का मार्ग है । अन्तर में जिन स्वरुपी भगवान आत्मा स्वयं वीतराग ब्रह्म स्वरुप मूर्ति है। सभी जीव अन्तर में तो जिन स्वरूप हैं। पर्याय में अंतर है परन्तु स्वभाव में अंतर नहीं है। जो राग से एकता तोड़कर अज्ञान मिथ्यात्व छोड़कर जिन स्वरुप निज भगवान आत्मा को दृष्टि में ले, व अनुभव करें, वह स्वयं परमात्मा हो जाता है, यही सच्ची पूजा है। पर वस्तु तो दूर है। शरीर, वाणी, मन, स्त्री, पुत्र, पैसा यह भी सब कर्मोदय जन्य संयोग पर हैं। यहां तक कि देव, गुरु, शास्त्र भी दूर रहें, वह भी पर हैं, परन्तु जो त्रिकाली आनन्द मूर्ति चैतन्य प्रभु ध्रुव तत्व पर दृष्टि न देकर एक समय की पर्याय पर दृष्टि रखता है। वह भी कर्म बंध भव भ्रमणका कारण है। फिर पर से अपना हिताहित, भला, बुरा होना मानना तो महान मिथ्यात्व है। जिसकी जिधर की जैसी रुचि होती है उसी अनुसार मति होती है, उसी अनुसार गति होती है। जिसकी मति, चैतन्य स्वरुप में न होकर राग और पर में होगी उसे मरकर संसार में ही भटकना पड़ेगा। प्रश्न- इस बात से तो बड़ा विरोध पैदा होता है। संसार में सभी अपनी सम्प्रदायिक मान्यता के अनुसार पूजा- विधान आदि धार्मिक अनुष्ठान करते हैं। यदि वह सब मिथ्यात्व है, तो फिर कैसे काम चलेगा ? समाधान- यह कोई वाद विवाद का विषय नहीं है। यह तो अपनी अन्तर मान्यता का विषय है। कौन क्या करता है ? इससे भी कोई सम्बन्ध नहीं है। संसार में तो सभी तरह के जीव हैं और सब कुछ होता है। यहां तो जिसे मुक्त होना है संसार में नहीं रहना है, सत्य वस्तु स्वरूप समझने की भावना है उसके लिये यह बात है। संसार में कौन क्या करता है ? उसकी वह जाने। यह जैन दर्शन, जिनेन्द्र परमात्मा भगवान महावीर का मार्ग बहुत सूक्ष्म है। [67] < - यह परमात्म तत्व शुद्ध अध्यात्म की बात अन्यत्र दुर्लभ है। सत्य वस्तु स्वरूप को सुनना, समझना भी बहुत कठिन, बड़ा मुश्किल है। अरे यह ग्रहीत मिथ्यात्व अदेवादिक की पूजा संसार का कारण है ही। यहां तो जो व्रत, तप आदि करके उससे धर्म मानते हैं, वह भी अभी अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि हैं। यह ज्ञान मार्ग तो सूक्ष्म है। यहां तो स्वयं की पर्याय का लक्ष्य करोगे, तो राग व दुःख होगा। यहां तक कि निर्मल पर्याय का भी लक्ष्य व आश्रय करोगे तो विकल्प उठेंगे। भगवान आत्मा त्रिकाली ध्रुव स्वभाव तो पर्याय को छूता ही नहीं है। जब स्वयं की पर्याय से ही सम्बन्ध नहीं है। स्वयं की पर्याय से सम्बन्ध रखना भी राग और बंध का कारण है, तो प्रभु पर की पर्याय जड़ की पर्याय से सम्बन्ध रखना, उसका लक्ष्य रहना, कितना घातक, बाधक होगा? वस्तु स्वरुप तो यह है कि जीव अपने परिणाम भी अपने चाहे अनुसार नहीं कर सकता, परन्तु जो परिणाम क्रमानुसार होने हैं वही होते हैं। उन्हें चाहे जैसे आगे पीछे, उल्टे-सुलटे नहीं कर सकते। जगत में सब कुछ व्यवस्थित अपने क्रमानुसार होता है। कहीं कुछ भी फेर फार नहीं हो सकता, हो ही नहीं सकता। जब जैसा जो कुछ होना है वह वैसा ही होगा, यह वस्तु स्वरुप, स्वतंत्र व्यवस्था है। इसलिये सारभूत बात यह है कि अपना हित करना है, तो सत्य वस्तु स्वरुप को समझकर, अपने ध्रुव स्वभाव पर दृष्टि रखो, और सारा जगत प्रपंच छोड़ो, कौन क्या करता है, इस तरफ दृष्टि नहीं देना, अपनी देखना, अपना सही निर्णय कर अपना मार्ग बनाना है, इसलिए सद्गुरु तारण स्वामी ने बाहर की कोई चर्चा न करते शुद्ध अध्यात्म जैसा जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा वैसा ही मोक्षमार्ग भव्य जीवों, ज्ञान मार्ग के साधकों के लिये सत्य वस्तु स्वरूप बताया है। प्रश्न- शुद्ध पूजा क्या है ? और उसका फल क्या है ? आगे सद्गुरु इसके समाधान में गाथा कहते हैं... गाथा (२५) तेनाह पूज सुद्धं च सुद्ध तत्व प्रकाशकं । पण्डितो वन्दना पूजा, मुक्ति गमनं न संशया ॥२५॥ अन्वयार्थ (तेनाह) इसलिए कहा (पूज सुद्धं) शुद्ध पूजा का स्वरुप (च) और (शुद्ध तत्व) शुद्धात्म तत्व (प्रकाशकं ) प्रकाश करना, प्रगट करना [68]
SR No.009721
Book TitlePundit Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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