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________________ अन्वयार्थ - (अदेवं) अदेवों को अर्थात् चैतन्यता एवं देवत्व रहित जो जड़ अचेतन हैं (अन्यान) अज्ञानी (मूढं) मूढ़ता से ग्रसित (च) और (अगुर) अगुरु अर्थात् जिसमें गुरुपना ही नहीं है (अपूज) अपूज्य हैं (पूजत) पूजा करते हैं। (मिथ्यातं) मिथ्यात्व अर्थात् झूठी मान्यता, संसार का कारण (सकल) सब तरह से (जानन्ते) जानो - जानते हैं (पूजा) ऐसी पूजा (संसार भाजन) संसार का पात्र बनाने वाली है। विशेषार्थ - अदेव अर्थात् जड़ पाषाण आदि की मूर्ति तथा अज्ञानी और मूढ़ता से ग्रसित - चतुर्निकाय के देव जो कुदेव हैं और गुरुतासे रहित अगुरु जो अपूज्य हैं। ऐसे कुदेव, अदेव, अगुरु, कुगुरु आदि की जो पूजा करते हैं। यह सब गृहीत, अगृहीत मिथ्यात्व जानो, संसारी कामना, वासना को लेकर अथवा अज्ञानता लोक मूढ़ता वश जो ऐसी अदेवादि की पूजा करते हैं। यह सब संसार का पात्र बनाने वाली है। अज्ञानी मूढ़ जीव - देवत्व रहित अचेतन अदेवों की पूजा करते हैं, तथा अज्ञानी अगुरुजो अपूज्य होते हैं, जो मूढ़ जीव उनकी पूजा सेवा भक्ति करते हैं वे दुर्गति के पात्र बनते हैं। ज्ञानी जानते हैं कि अदेव, अगुरु आदि की पूजा करना मिथ्यात्व है। जो अदेवादि की पूजा करते हैं, इष्ट मानते हैं वे अज्ञानी जीव संसार के पात्र बनते हैं। अर्थात् चार गति चौरासी लाख योनियों में अनन्त काल तक जन्म मरण के दुःख भोगते हैं। सच्ची (शुद्धात्म) देव पूजा संसार चक्र से छुड़ाकर मुक्ति देती, स्वयं परमात्मा बनाती है। और यह अदेवादि की पूजा, जीव को संसार का पात्र बनाने वाली होती है। देव किन्तु देवत्व हीन जो, वे अदेव कहलाते हैं। वही अगुरु जड़ जो गुरु बनकर, झूठा जाल बिछाते हैं। ऐसे इन अदेव अगुरों की, पूजा है मिथ्यात्व महान । जो इनकी पूजा करते वे, भव - भव में फिरते अज्ञान ।। (चंचल जी) धर्मभी ज्ञानी को होता है, व ऊँचे पुण्य भी ज्ञानी को बंधते हैं। अज्ञानी को आत्मा के स्वभाव का भान नहीं है। धर्म का पता ही नहीं है देव, गुरु, धर्म का स्वरुप ही नहीं जानता, इसीलिये उसके धर्म भी नहीं और ऊँचा पुण्य भी नहीं होता। [65] तीर्थकर पद, चक्रवर्ती पद आदि पद सम्यग्दृष्टि जीवों को ही प्राप्त होते हैं। कारण कि ज्ञानी को यह भान है कि एक मेरा निर्मल आत्म स्वभाव ही आदरणीय है, उसके सिवाय राग का एक अंश या पुद्गल का एक रज कण भी आदर योग्य नहीं है। ___वया, पूजा, भक्ति वगैरह के शुभ परिणाम तो विकारी भाव है। उनसे पुण्य बंध होता है लेकिन धर्म नहीं होता, न मुक्ति होती है। जिसे राग का रस है, वह राग भले ही भगवान की भक्ति का है या तीर्थ यात्रा का है, वह भगवान आत्मा के अतीन्द्रिय आनन्द से रिक्त है, रहित है और मिथ्यादृष्टि है। मिथ्यात्व ही संसार का मूल है। विपरीत मान्यता ही मिथ्यात्व है, जो वस्तु जैसी है, उसे उसके विपरीत मानना, अपनी झूठी कल्पना करना ही मिथ्यात्व है। परमार्थ स्वरुप देव, गुरु और शास्त्र का, तीन मूढ़ता, छह अनायतन, आठमद और शंकादिक आठ दोषों सेरहित तथा आठ अंग सहित सत्श्रद्वान करना सम्यग्दर्शन है, तथा इसके विपरीत श्रद्धान करना, मिथ्यात्व है। जिसके हृदय में पर द्रव्य के विषय में अणुमात्र भी राग विद्यमान है, पर से अपना भला होना मानता है वह ग्याहर अंग नौ पूर्व का जानकार तथा अट्ठाईस मूल गुणों का निरतिचार पालन करने वाला द्रव्यलिंगी साधु होकर भी अपने आत्मा को नहीं जानता तो वह तीव्र मिथ्यात्वी है। कुदेव-अदेव में देव बुद्धि, कुगुरु-अगुरु में गुरु बुद्धि और कुधर्म-अधर्म में धर्म बुद्धि होना ही मिथ्यात्व है। इसके पांच भेद हैं (१) एकान्त(२) विपरीत (३) संशय (४) विनय (५) कुज्ञान। यह सब जीव को अनन्त संसार परिभ्रमण के कारण हैं। पर को अपना मानना, परसे अपना भला होना मानना, यह तो बड़ी भ्रमना है ही, परन्तु अपनी एक समय की चलने वाली पर्याय में इष्ट, अनिष्टपना मानना भी मिथ्यात्व है। अज्ञानी संसारी जीव मोह के कारण अदेव, कुदेवादि की पूजा, वंदना भक्ति करता है, और संसारीपुत्र, परिवार आदि की कामना पूर्ति चाहता है, पर यह सब तो प्रत्येक जीव के अपने अपने कर्मोदय अनुसार ही सब सुख - दुःख अनुकूलता-प्रतिकूलता मिलती है। पर मिथ्यात्व और अज्ञान के कारण विवेकहीन लोक मूढ़ता वश अदेवादि की पूजा भक्ति करता है। जिससे अनन्त संसार में रुलता रहता है। ज्ञानी को सच्चे देव, गुरु के [66]
SR No.009721
Book TitlePundit Puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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