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________________ से हमें अपने अक्षय स्वरूप की पहिचान करना चाहिए। यही प्रेरणा देते हुए रही है। जैसे तोते ने सीख लिया था किंतु उसका मर्म नहीं जानता था। इसी आचार्य तारण स्वामी ने कहा है - प्रकार हम लोग भी आत्मा की चर्चा कर रहे हैं और 'कलदृष्टि' अर्थात् शरीराश्रित शब्दार्थ शम्ब वेवंते, विजन पद विवते। हो रहे हैं,चर्चा आत्मा की और सेवा शरीर की? क्या अर्थ होता है आत्मा का ? अप्पा परमप्पर्य तुल्यं, सब्दन्यान प्रयोजन ॥ "सर्वदष्टि' हम कहते हैं कि संसार सब स्वार्थ का है। किंतु कहना कुछ और है। अर्थ-शब्दों से शब्दार्थ का बोध होता है, व्यंजनों से पद जाना जाता है। और दृष्टि उन ही सब पर पदार्थों पर संयोगों पर है, जिन्हें हम स्वार्थ पूर्ण कह रहे आत्मा ही परमात्मा के समान है, यह जानना ही शब्द ज्ञान का प्रयोजन हैं। पाप दृष्टि' कहते हैं कि पाप दु:ख के कारण हैं फिर भी पाप करने का ही मन है।८ में अभिप्राय है। पाप पर ही दृष्टि लगी हुई है। कहते हैं कि संसार शरीर सब श्री तारण स्वामी का मत है कि अक्षरों के सार्थक समूह को पद कहते नाशवान हैं, एक दिन आयु का अंत आएगा और सब छोड़कर जाना पड़ेगा, यहां हैं। पद के द्वारा ही पदार्थ की प्रतीति होती है। शब्दों को सीखने मात्र से कोई किसी का नहीं है, कुछ भी अपना नहीं है। यह सब हम तोते की तरह कहते प्रयोजन की सिद्धि नहीं होगी। मात्र सीखा हुआ शान, आत्मबोध से रहित ही रह जाते हैं और आयु कर्म का अंत रूपी बिलाव हमें (जीव को) संसार से ज्ञान, आत्म कल्याण के मार्ग के कार्यकारी नहीं है। स्वयं आचार्य तारण उठाकर ले जाता है। विचार करें क्या 'पढ़ो सुवा बिलाइ लियो' जैसी स्थिति स्वामी कहते हैं कि पढ़ा लिखा तो बहुत किंतु यदि उसका भाव नहीं समझा, नहीं हो रही है? इसलिए सद्गुरु तारण स्वामी ने सावधान कर दिया है कि मात्र उसे अपना अनुभव नहीं बनाया तो ऐसे कोरे क्षयोपशम ज्ञान से हित नहीं। ऊपरी ज्ञान से, सीखे हुए बौद्धिक ज्ञान से आत्म कल्याण का मार्ग नहीं बनेगा। होगा। "ज्ञानं भार: क्रिया बिना" इसी संदर्भ में उन्होंने सुन्न स्वभाव ग्रंथ में लिखा है ज्ञान आचरण के बिना भार ही है। ज्ञान की शोभा तद्रूप आचरण से पढ़े गुनै मूढ़ न रहै॥ पढ़ने गुनने के बाद भी मूढ न रह जाए। ८९ श्री गुरु तारण स्वामी कहते हैं कि- "तत्त्व तत्त्व तो सब लोग कहते हैं अन्यथा फिर वैसा ही होगा परंतु तत्त्व को कोई नहीं जानता, जिसके भय विनस गए वही भव्य है, उसने कलविस्टि, सर्वविस्टि, पापविस्टि पढ़ो सुवा बिलाइ लियो॥ अपने अंतरात्मा सद्गुरु को जगाकर आत्मानुभव किया वही तत्त्व को जानता एक सेठ जी ने तोता पाला था और उसे सिखा दिया था "तोता पिंजरे से । बाहर नहीं निकलना, बिल्ली आयेगी और पकड़कर ले जाएगी" तोते ने यह मंत्र तत्तु तत्तु सलोय स उत्तउ, तत्तु भेउ नवि जानियक। याद कर लिया। कहीं मेरे सूने में तोता पिंजरे से बाहर न चला जाए इसलिए सेठ ने भय विनासुतं भवुजु कहियऊ, तत्तु भेउ गुरु जानियऊ ॥ ९२ तोते को यह मंत्र याद करवा दिया था। तोते ने यह सीख लिया और दोहराता ज्ञान को आचरण बनाने की प्रेरणा प्राय: सभी वीतरागी संतों, ज्ञानी रहता। एक बार संयोगवश पिंजरे की फटकी खुली रह गई, सेठ पिंजरे की फटकी सद्गुरुओं ने दी है। भारतीय संस्कृति की यही विशेषता है कि यहाँ मात्र चर्चा की बंद करना भूल गया और तोता पिंजरे से बाहर आ गया। अपना पाठ जो याद नहीं, चर्या की प्रधानता है। इसलिये भारतीय परम्परा के संतों ने धर्म को इस किया था वही मंत्र दोहरा रहा था कि इतने में बिल्ली आई और तोते को पकड़ कर प्रकार परिभाषित किया-"चेतना लक्षणो धर्मो, चेतयन्ति सदा बुधैः"। ले गई। ९० आत्मा के चैतन्य लक्षण स्वभाव को जानना ही धर्म है। ज्ञानीजन हमेशा आचरण विहीन ज्ञान की कोरी चर्चा करने वाले जीवों की भी यही दशा हो। इसी का अनुभव करते हैं। ९३ ८८. श्री अध्यात्मवाणी, ज्ञानसमुच्चयसार, गाथा ४९, पृष्ठ २९, संपादित प्रति ९१. वही, पृष्ठ-७५ ८९. श्री अध्यात्मवाणी, सुन्न स्वभाव, सूत्र २०, पृष्ठ ३९६, संपादित प्रति ९२. श्री अध्यात्मवाणी ममलपाहुड-४८/९ संपादित प्रति पृष्ठ १९९ ९०. अध्यात्म भावना, तारण पंथ परिचय, ब. बसंत, ब्रह्मानंद आश्रम पिपरिया ९३. पंडित पूजा, अध्यात्म सूर्य टीका, पू. ज्ञानानंद जी महाराज भोपाल प्रकाशन, सन् १९९९, पृष्ठ ७४-७५ प्रकाशन सन् १९९९-५.३० ७९
SR No.009720
Book TitleOm Namo Siddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasant Bramhachari
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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