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________________ जिनवाणी के स्वाध्याय से रागादि विकार क्षीण होते हैं, वस्तु स्वरूप का बोध अर्थ-अर्थाक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्तिक, अनुयोग, प्राभृतप्राभृत, प्राभृत, होता है। वस्तु, पूर्व यह नव तथा क्रम से एक-एक अक्षर की वृद्धि के द्वारा उत्पन्न होने वाले इन्हीं बावन अक्षरों का उल्लेख श्री जिन तारण स्वामी ने केवल मत के सुन्न अक्षर समास आदि नव इस तरह अठारह भेद द्रव्यश्रुत के होते हैं। पर्याय और स्वभाव नामक ग्रंथ में भी किया है, वह इस प्रकार है पर्याय समास के मिलाने से बीस भेद ज्ञानरूप श्रुत के होते हैं। यदि ग्रंथ रूप श्रुत व्यंजन ५२, वीर ५२, अक्षर ५२,बावन तोले पाव रती॥ की विवक्षा की जाये तो आचारांग आदि बारह और उत्पाद पूर्व आदि चौदह भेद इस ग्रंथ की टीका समाजरत्न पूज्य ब्र. श्री जयसागर जी महाराज ने की होते हैं। ५ है। इस सूत्र के अर्थ में उन्होंने लिखा है- "अक्षर ५२ हैं. स्वर- व्यंजन ५२ इस तरह श्रुत के दो भेद किए हैं-द्रव्य श्रुत और भाव श्रुत। उनमें शब्दरूप हैं। ५२ वीर कहावत है। ५२ तोले पाव रत्ती कहावत है। दोनों सूत्र सत्य का और ग्रंथरूप सब द्रव्यश्रुत है और जो ज्ञानरूप है वह सब भाव श्रुत है। जैनाचार्यों निर्णय चाहते हैं। ८२ ने एक-एक अक्षर से एक-एक श्रुतज्ञान उत्पन्न होने की बात मानी है। जितने पूज्य जयसागर जी महाराज चारों अनुयोगों के ज्ञाता विशिष्ट ज्ञानी पुरुष । अक्षर उतने ही श्रुतज्ञान हैं। श्री आचार्य तारण स्वामी ने लिखा है-"शब्दभेय थे। ब्र. शीतलप्रसाद जी ने जिन ग्रंथों की टीका की, उनके अलावा जो ५ ग्रंथ श्रुत नन्तानंतु" अर्थात् शब्द के भेद से शास्त्र के भी अनंत भेद होते हैं। ८५ रहे- खातिका विशेष, सिद्ध स्वभाव, सुन्न स्वभाव, छद्मस्थवाणी और आचार्य भूतबलि और पुष्पदंत ने षट्षंडागम में भी अक्षर आदि के नाममाला। इन ग्रंथों की टीका पूज्य जयसागर जी महाराज द्वारा की गई। उपरोक्त स्वरूप को इसी प्रकार स्पष्ट किया है तदनुसार "जावदियाणि अक्खराणि सूत्र की टीका के अंत में उन्होंने लिखा है तावदियाणि चेव सुदणाणाणि" जितने अक्षर अथवा अक्षर संयोग हैं, उतने ही व्यंजन में सब स्वर छुपे, बावन में सब वीर। श्रुतज्ञान हैं किंतु उनकी संख्या कितनी है यह जानना आसान काम नहीं आप छुपे हैं आप में, मिलें ज्ञान के तीर ॥ ८३ है। वहां आचार्य ने लिखा है- "श्रुतज्ञान की सर्व प्रकृतियों का कथन करने की यह सूत्र यह संदेश दे रहा है कि जिनवाणी द्रव्यश्रुत रूप है और अंतर का शक्ति मुझमें नहीं है। ८६ अनुभव भावश्रुत रूप है, जो अंतर में ही प्रगट है। श्रुतज्ञान के यद्यपि अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक अथवा शब्दज और जैन ग्रंथों में अक्षर के संबंध में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार किया गया लिंगज इस तरह भी दो भेद किए हैं, किंतु इनमें अक्षरात्मक शब्दजन्य श्रुतज्ञान है। अक्षर की परिभाषा करते हुए कहा है-"नमरतीति अक्षरः" अर्थात् ही मुख्य माना है क्योंकि प्रथम तो निरुक्त्यर्थ करने पर उसके विषय में शब्द जिसका क्षरण न हो, जिसका कभी नाश न हो उसे अक्षर कहते हैं। यह दो प्रकार प्रधानता स्वयं व्यक्त हो जाती है। दूसरी बात यह है कि नामोच्चारण लेन-देन का होता है-द्रव्याक्षर और भावाक्षर, पहला मूर्तीक और दूसरा अमूर्तीक है। आदि समस्त लोक व्यवहार में तथा उपदेश शास्त्राध्ययन,ध्यान आदि की अपेक्षा पहला-दृष्ट, दूसरा-अदृष्ट, पहला- स्थूल, दूसरा-सूक्ष्म यह दोनों ही अक्षर मोक्षमार्ग में भी शब्द और तज्जन्यबोध श्रुतज्ञान की ही मुख्यता है। अनक्षरात्मक ज्ञानरूप हैं। पहले से श्रुतज्ञान की रचना होती है और दूसरे से अध्यात्म ज्ञान श्रुतज्ञान एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सभी जीवों में पाया जाता है परंतु वह जाग्रत होता है। श्री नेमिचंद्राचार्य जी ने श्रुत के दो भेद किए हैं- द्रव्यश्रुत और लोक व्यवहार और मोक्षमार्ग में भी उस तरह उपयोगी न होने के कारण मुख्य भावश्रुत । इनके भेदों का उल्लेख करते हुए आचार्य लिखते हैं नहीं है। अत्थक्खरं च पदसंघातं पडिवत्तियाणि जोगं च । यहां अक्षरात्मक ज्ञान की मुख्यता का प्रयोजन यह है कि अक्षरों के माध्यम दुगवार पाहुडं च य पाहुडयं वत्थु पुध्वं च ॥ ८४. गोम्मटसार जीवकांड, श्रीमद् राजचंद्र आश्रम अगास प्रकाशन, छटवीं वृत्ति सन् कम वण्णुत्तर वढिय ताण समासा य अक्खरगदाणि । १९८५, गाथा ३४८-३४९,पृ.-१७८ णाण वियप्पे वीसं गंथे बारस य चोदसयं ॥ ८५. श्री अध्यात्मवाणीममलपाहुड, संपादित प्रति पृष्ठ-२२७,गा. १० ८२. ग्रंथरत्नत्रय, अ.जयसागरजी, सागर प्रकाशन, सन् १९९१, पृष्ठ-१०० ८६. षट्खंडागम, पुस्तक १३, पृष्ठ-२४७-२४८ ८३. वही, पृष्ठ- १०२ ८७. गोम्मटसार जीवकांड, अगास प्रकाशन, पृष्ठ-१६७ go
SR No.009720
Book TitleOm Namo Siddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasant Bramhachari
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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