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________________ मंत्र, मंत्र नहीं है। मंत्र में विद्यमान अनंत एवं अपराजेय अध्यात्म शक्ति परमेष्ठी शक्ति एवं दैवी शक्ति ही मंत्र है। अतः मंत्र शब्द में मन् + त्र यह दो शब्द क्रमशः • मनन चिंतन और त्राण अर्थात् रक्षा और शुभ का अर्थ देते हैं। मनन द्वारा मंत्र से पाठक को आध्यात्मिक आत्म गुणों की अनुभूति होती है। इससे शक्तिशाली होकर वह कष्टप्रद सांसारिकता से त्राण पाने में समर्थ होता है। मंत्र शब्द का एक विशिष्ट अर्थ भी ध्यान देने योग्य है। मन् अर्थात् चित्त की त्र अर्थात् तृप्त अवस्था अर्थात् पूर्ण अवस्था अर्थात् आत्म साक्षात्कार की सिद्ध के समान निर्विकल्प अवस्था ही मंत्र है। वास्तव में चित्तशक्ति चैतन्य की संकुचित अवस्था में चित्त बनती है और वही विकसित होकर चिति (विशुद्ध आत्मा) बनती है । चित्त जब बाह्य वेद्य समूह को उपसंहृत करके अंतर्मुख होकर चिद्रूपता के साथ अभेद विमर्श संपादित करता है तो यही उसकी गुप्त मंत्रणा है, जिसके कारण उसे मंत्र की अमिधा मिलती है। अतः मंत्र देवता के विमर्श में तत्पर तथा उस देवता के साथ जिसने सामरस्य प्राप्त कर लिया है ऐसे आराधक का चित्त ही मंत्र है, केवल विचित्र वर्ण संघटना ही नहीं। मंत्र आत्मज्ञान और परमात्म सिद्धि का मूल कारण है, परंतु यह तभी संभव हो सकता है जब ज्ञान हृदयस्थ हो जाए और आचरण में ढल जाए। महात्मा गांधी ने उचित ही कहा है-"अगर यह सही है और अनुभव वाक्य है तो समझा जाए कि जो ज्ञान कंठ से नीचे जाता है और हृदयस्थ होता है, वह मनुष्य को बदल देता है आवश्यकता यह कि वह ज्ञान आत्म ज्ञान हो।" जिसका पाठ मात्र करने से कार्य सिद्ध हो जाते हैं उसे मंत्र कहते हैं। जिसको नियम साधना पूर्वक जप आदि करके सिद्ध करना पड़ता है उसे विद्या कहते हैं। जैन ग्रंथों में विद्या और मंत्र में यही भेद बताया है। ऐसा कहा भी जाता है कि जिसकी अधिष्ठातृ देवता स्त्री होती है वह विद्या है और जिसका अधिष्ठातृ देवता पुरुष होता है वह मंत्र है। चौदह पूर्व के अंतर्गत विद्यानुवाद नाम के पूर्व में अनेक विद्याओं और मंत्रों के होने का वर्णन ग्रंथों में पढ़ने में आता है। वर्तमान भौतिक युग में यह सभी विद्यायें लुप्त हो गई हैं। अतीत के इतिहास से विदित होता है कि प्राचीन भारत में मंत्र साधना का बहुत जोर था और अनेकों मंत्र जपकर्ता सच्चे साधक थे। इन विद्याओं के लुप्त होने का कारण यह है कि मंत्र साधना का दुरुपयोग करने अथवा मंत्र आदि की आड़ में ठग विद्या का आश्रय लेने से यह विद्या बदनाम भी हुई और लुप्त भी हो गई । मंत्र जप साधना का मुख्य लक्ष्य आत्मशांति और आत्म कल्याण होता है, बाह्य प्रदर्शन और धंधा चंदा करना नहीं। शास्त्रों में अनेक मंत्र और विद्याओं का ४ उल्लेख मिलता है किंतु इनके जप साधना स्मरण करने में स्व लक्ष्य ही प्रमुख है । मंत्र शास्त्र की दृष्टि से यह मंत्र अपने आपमें अलौकिक है। यह 'महतो महीयान' और 'लघुतो लघीयान' है अर्थात् जहां यह कुछ अर्थों में महान से भी महान है वहीं कुछ अर्थों में लघु से भी लघु है। एक ओर इसकी शक्ति अतुल है, दुनियाँ की ऐसी कोई रिद्धि सिद्धि नहीं है जो इसके द्वारा प्राप्त न की जा सके किंतु साधक का लक्ष्य उन सबकी ओर से निष्काम होना जरूरी है। कामना करके मंत्र की आराधना करने से उसकी प्राप्ति में संदेह है परंतु निष्काम होकर मंत्र की साधना करने से उसकी प्राप्ति निश्चित है। जहां संसार के अन्य मंत्र कामना करने से उसकी पूर्ति करते हैं वहीं यह मंत्र निष्काम होने से सारी कामनाओं की पूर्ति करता है। इसका कारण यह है कि यह मंत्र प्रथम तो उस महती आत्मशक्ति की प्रतिध्वनि है जो अंतर से उठती है। दूसरी बात निष्काम रूप से जपने से उपार्जित होने वाला पुण्य सब कार्य होने में निमित्त बनता है। चाहने से कार्य नहीं होता, पुण्योदय के बिना जिस वस्तु को चाहो वह और दूर होती है क्योंकि जिसकी कामना करो, इच्छा करो वह नहीं मिलता और दूर भागता है किंतु जिसे न चाहो, उपेक्षा करो वह पीछे-पीछे घूमता है। कहा भी है। - · माया की गति छाया जैसी, धरै चले तो धावे । ताहि छोड़ जो भाग चले तो पीछे पीछे आवे ॥ आचार्य समंतभद्र महाराज ने लिखा हैविभेति मृत्योर्न ततोऽस्ति मोक्षो, नित्यं शिवं वाञ्छति नास्य लाभ: । तथापि बालो भय काम वश्यो, वृथा स्वयं तत्यत इत्यवादीः ॥ ॥ वृहत् स्वयंभू स्तोत्र ॥ प्राणी मौत से डरता है, विष्ठे का कीड़ा भी मरना नहीं चाहता, किंतु उससे किसी का छुटकारा नहीं है। सभी को मौत के मुंह में जाना ही पड़ता है। प्रत्येक मनुष्य सदा इस बात की इच्छा करता है कि कभी भी मेरा कोई अनिष्ट न हो सदा शुभ ही शुभ हो, किन्तु उसकी यह कामना पूरी नहीं होती, इसके साथ अनिष्ट भी लगा ही रहता है फिर भी यह मूर्ख प्राणी व्यर्थ ही भय और कामना के चक्कर में पड़कर क्लेश भोगता है। अतः इच्छा व्यर्थ है क्योंकि जो हम चाहते हैं वह होता नहीं और जो होता है वह हम चाहते नहीं। जो होता है वह भाता नहीं, और जो भाता है वह होता ५
SR No.009720
Book TitleOm Namo Siddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasant Bramhachari
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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