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________________ ९० वर्तमान चौबीसी का अर्थ - श्री ऋषभनाथ, अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ, छटवें तीर्थंकर पद्मप्रभ भगवान हैं। सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ हैं, आठवें चन्द्रप्रभ संसार से पार लगाने वाले हैं। पुष्पदंत,शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्य और विमलनाथ, अनंतनाथ,धर्मनाथ पृथ्वी पति हैं। सोलहवें शांतिनाथ जिनेश्वर की मैं वन्दना करता हूँ। कुन्थुनाथ, अरहनाथ, मल्लिनाथ, बीसवें मुनिसुव्रत नाथ हैं, इक्कीसवें नमिनाथ भगवान को साष्टांग नमस्कार है। नेमिनाथ भगवान ने ऐसा पुरुषार्थ किया कि गिरनार पर्वत के शिखर पर चले गये और बाईस परीषह के विजेता हुए। तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ और चौबीसवें जिनेन्द्र भगवान वर्द्धमान महावीर हैं। इन चौबीस तीर्थंकरों में से चार तीर्थंकर अलग-अलग चार दिशाओं से मोक्ष गये, शेष बीस तीर्थंकर श्री सम्मेद शिखरजी से मोक्ष पधारे। आदिनाथ भगवान कैलाश पर्वत से, वासुपूज्य भगवान चंपापुर से, नेमिनाथ भगवान गिरनार से और महावीर जिनराज पावापुरी से मुक्ति को प्राप्त हुए। इन तीर्थंकरों में दो तीर्थंकरों-चन्द्रप्रभ और पुष्पदंत के शरीर का वर्णधवल (सफेद) था। दो तीर्थंकरों- सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ के शरीर का वर्ण हरित (हरा) था। दो तीर्थंकरों - पद्मप्रभ और वासुपूज्य के शरीर का वर्ण रक्त (लाल) था। दो तीर्थंकरों - मुनिसुव्रतनाथ और नेमिनाथ के शरीर का नीलवर्ण (श्यामल) रंग का था। शेष सोलह तीर्थंकरों के शरीर का वर्ण स्वर्ण की तरह पीले रंग का था। अवसर्पिणी के दश कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण काल में चौबीस तीर्थंकर हुए हैं, जो निर्वाण को प्राप्त हो गए हैं। अनन्त सिद्ध हो चुके हैं। अनन्त सिद्ध आगे होवेंगे। मैं चौबीसों ही जिनेन्द्र परमात्माओं की वंदना करता हूँ। चौबीस तीर्थंकर भगवंतों की वंदना करके उन सिद्ध भगवंतों को वंदन करता हूँ जो लोक के शिखर, अग्रभाग में वास कर रहे हैं। आचार्य, उपाध्याय और साधु जो सच्चे गुरू हैं उनके चरण कमलों की वंदना करता हूँ। दोहा का अर्थसच्चे देव, गुरू, धर्म को नमस्कार करके शिवक्षेत्र अर्थात् मोक्ष स्थान में विराजमान सिद्ध भगवंतों को नमन करता हूँ, विदेह क्षेत्र में सदा सर्वदा विराजमान बीस तीर्थंकर जिनेन्द्र भगवंतों को नमस्कार है, जिनके नाम विशेष इस प्रकार हैं विदेह क्षेत्र बीस तीर्थकर स्तवन का अर्थमन, वचन, काय की एकता हृदय में धारण करके श्री जिनेन्द्र सीमंधर स्वामी को नमस्कार करता हूँ, युगमंधर स्वामी के चरण युगल की वन्दना करता हूँ, जिनके नाम स्मरण करने से पाप क्षय हो जाते हैं। बाहु सुबाहु स्वामी स्वभाव में लीनता रूप परम धैर्य धारण करने वाले हैं। श्री संजात स्वामी निज स्वभाव में लीन होने से महावीर हैं। स्वयंप्रभ स्वामी जी का ध्यान महान है, ऋषभाननजी का गुणानुवाद महिमा पूर्वक कह रहे हैं। अनन्त वीर्य, सूरिप्रभ और विशाल कीर्ति की जग में कीर्ति हो रही है। वजधर स्वामी, चन्द्रधर (चन्द्रानन)और चन्द्रबाहु का जिनवाणी में कथन किया गया है। भुजंगम और ईश्वर जी जगत के ईश्वर हैं, नेमीश्वर प्रभु की मैं विनय करता हूँ। वीर्यसेन वीर्य बल से संपन्न हैं, महाभद्र जी को तीर्थंकर कहा गया ऐसा जानो। श्री देवयश स्वामी परमेश्वर हैं, अजितवीर्य पूर्णत्व को प्राप्त मनुष्यों के ईश्वर हैं। विदेह क्षेत्र में बीस तीर्थंकर सदा सर्वदा विद्यमान रहते हैं, ऐसी विद्यमान बीसी को भाव सहित चित्त की एकाग्रता पूर्वक पढ़ो इससे धर्म की वृद्धि होगी और पाप क्षय हो जायेंगे।
SR No.009719
Book TitleMandir Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasant Bramhachari
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages147
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size1 MB
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