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________________ १६७ ] [मालारोहण जी द्वारा अन्धकार दशा का नाश करके अत्यन्त प्रकाशमान शुद्धात्म तत्व होता है। शुद्धात्म तत्व परम प्रकाशमान केवलज्ञान ज्योति स्वरूप लोकालोक प्रकाशक है, समस्त संकल्प विकल्प से रहित है अर्थात् मनादि में होने वाले भावों से मुक्त रत्नत्रय मयी परम ब्रह्म परमात्म स्वरूप है, ऐसा ही मेरा सत्स्वरूप है, ऐसा भेदज्ञान पूर्वक सत्श्रद्धान, ज्ञान करके ज्ञानी अपने सत्स्वरूप की बड़ी भक्ति-युक्ति से साधना करता है। ज्ञानी का मार्ग-संकल्प, विवेक और युक्ति से पुरुषार्थ करना है। प्रश्न- ज्ञानी इस प्रकार की अपने शुद्धात्म तत्व की साधना करता है, इससे होता क्या है? इसके समाधान में सद्गुरू तारण स्वामी आगे सोलहवीं गाथा कहते हैं गाथा - १६ जे धर्म लीना गुन चेतनेत्वं, ते दुष्य हीना जिन सुद्ध दिस्टी । संप्रोषि तत्वं सोइ न्यान रूपं, ब्रजंति मोष्यं षिनमेक एत्वं ॥ शब्दार्थ- (जे) जो भव्य जीव (धर्म लीना) अपने शुद्ध स्वभाव में लीन होते हैं (गुन चेतनेत्वं) जो चैतन्य गुण वाला है (ते) वह (दुष्य हीना) समस्त दुःखों से रहित (जिन) सर्वत्र परमात्मा - जिनेन्द्र हैं (सुद्ध दिस्टी) सम्यग्दृष्टि (संप्रोषि तत्वं) समस्त तत्व, सत्ताईस तत्व रूप विश्व (सोइ) उनके (न्यान रूपं) केवलज्ञान में झलकता है (ब्रजंति) चले जाते हैं (मोष्यं) मोक्ष में (षिनमेक एत्वं) एक क्षण मात्र में । विशेषार्थ - जो भव्य जीव चिदानन्द, चैतन्य गुण मयी शुद्ध धर्म निज शुद्ध स्वभाव में लीन होते हैं, वे शुद्ध दृष्टि समस्त दुःखों से अर्थात् घातिया कर्मों से रहित जिनेन्द्र परमात्मा हो जाते हैं। उनके केवलज्ञान स्वरूप में सम्पूर्ण तत्व पूरे विश्व का त्रिकालवर्तीपना झलकता है और वे एक क्षणमात्र में मोक्ष चले जाते हैं अर्थात् आयुआदि अघातिया कर्मों का अभाव होते ही सिद्ध परमात्मा हो जाते हैं । गाथा क्रं. १६ ] [ १६८ शुद्धात्मा की साधना से क्या होता है ? मुमुक्षु जीव तीन लोक को जानने वाले निर्विकल्प शुद्ध तत्व की साधना करके सिद्धि को प्राप्त करता है अर्थात् सिद्ध परमात्मा होता है। जो अनवरत रूप से अपने अखंड अद्वैत, चैतन्य, स्वरूप में विलास करता है, उसको लोकालोक को प्रकाशित करने वाला केवलज्ञान प्रगट होता है वह समस्त दुःखों से छूट जाता है और जिनेन्द्र परमात्मा हो जाता है। सहज तेज पुंज में निमग्न ऐसा वह प्रकाशमान सहज परमतत्व जयवन्त है कि जिसने मोहांधकार को दूर किया है, जो सहज परम दृष्टि से परिपूर्ण है और जो वृथा उत्पन्न भव - भव के परितापों से तथा कल्पनाओं से मुक्त है। जिसका निज विलास प्रगट हुआ है, जो सहज परम सौख्य वाला है तथा जो चैतन्य चमत्कार मात्र है, उसका सर्वदा अनुभवन करता है। यह अनघ (निर्दोष) आत्म तत्व जयवन्त है कि जिसने संसार को अस्त किया है, जिसने भव का कारण छोड़ दिया है, जो एकान्त से शुद्ध प्रगट हुआ है तथा जो सदा निज महिमा में लीन होने पर भी सम्यग्दृष्टियों को गोचर है। सम्यग्दृष्टि जीव संसार के मूलभूत सर्व पुण्य-पाप को छोड़कर नित्यानन्द मय सहज शुद्ध चैतन्य रूप जीवास्तिकाय को प्राप्त करता है। वह शुद्ध जीवास्तिकाय में सदा विहरता है और फिर त्रिभुवनजनों से (तीन लोक के जीवों से ) अत्यन्त पूजित ऐसा जिन होता है। इस निर्दोष परमानन्द में तत्व के आश्रित धर्म ध्यान में और शुक्ल ध्यान में जिसकी बुद्धि परिणमित हुई है, ऐसा शुद्ध रत्नत्रयात्मक जीव ऐसे किसी विशाल तत्व को अत्यन्त प्राप्त करता है कि जिस तत्व में से महा दुःख समूह नष्ट हुआ है और जो तत्व भेदों के अभाव के कारण जीवों को मन और वचन के मार्ग से दूर है। इस अविचलित, महा शुद्ध रत्नत्रय वाले मुक्ति के हेतुभूत निरूपम, सहज ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप, नित्य आत्मा में आत्मा को वास्तव में सम्यक् प्रकार से स्थापित करके यह आत्मा चैतन्य चमत्कार की भक्ति द्वारा निरतिशय को जिसमें से सब विपदायें दूर हुई हैं तथा जो परम आनन्द से शोभायमान है, उसे प्राप्त करता है, सिद्धि का स्वामी होता है।
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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