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________________ [मालारोहण जी आत्मा, निर्दंड, निर्द्वद, निर्मम निःशरीर, निरालम्ब, नीराग, निर्दोष, निर्मूढ़ और निर्भय है। आत्मा, निर्ग्रन्थ, नीराग, निःशल्य, सर्व दोष विमुक्त, निष्काम, नि:क्रोध, निर्मान और निर्भय है। (नियमसार गाथा ४३, ४४ ) १६५ ] जीव को अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, चेतना गुण वाला, अशब्द, • अलिंग ग्रहण और जिसे कोई संस्थान नहीं कहा है, ऐसा जानता है। जिस प्रकार लोकाग्र में सिद्ध भगवन्त, अशरीरी, अविनाशी, अतीन्द्रिय निर्मल और विशुद्धात्मा हैं, उसी प्रकार अपना स्वरूप तथा संसार के प्रत्येक जीव का स्वरूप जानता है। परब्रह्म के अनुष्ठान में निरत, अर्थात् शुद्धात्म तत्व के ध्यान में लीन बुद्धिमान पुरुषों को अन्तर्जल्प होता ही नहीं, बहिर्जल्प की तो बात ही क्या है अर्थात् सारे संकल्प - विकल्प से रहित होते हैं। शुद्ध निश्चय से (१) सदा निरावरण स्वरूप (२) शुद्ध ज्ञान रूप (३) सहज चित्शक्ति मय (४) सहज दर्शन के स्फुरण से परिपूर्ण मूर्ति और (५) स्वरूप में अविचल स्थिति रूप सहज यथाख्यात चारित्र वाले ऐसे मुझे समस्त संसार क्लेश के हेतु क्रोध, मान, माया, लोभ नहीं है। इन विविध विकल्पों से भरी हुई विभाव पर्यायों का निश्चय नय से मैं कर्ता नहीं हूँ कारयिता नहीं हूँ। मैं शरीर सम्बन्धी बाल आदि अवस्था भेदों को नहीं करता, सहज चैतन्य के विलास स्वरूप आत्मा को ही भाता हूँ। इस अति निकट भव्यजीव को सम्यग्ज्ञान की भावना किस प्रकार से होती है, ऐसा प्रश्न किया जाये तो, श्री गुणभद्र स्वामी आत्मानुशासन में २३८ वें श्लोक द्वारा कहते हैं भावयामि भवावर्ते, भावना: प्राग् भाविता: । भावये भावितानेति, भवाभावाय भावना: ॥ भवावर्त में पहले न भायी हुई भावनायें अब मैं भाता हूँ। वे भावनायें पहले न भायी होने से मैं भव के अभाव के लिए उन्हें भाता हूँ । मैं ममत्व को छोड़ता हूँ और निर्ममत्व में स्थित होता हूँ, आत्मा मेरा आलम्बन है और शेष मैं छोड़ता हूँ। वास्तव में मेरे ज्ञान में आत्मा है, मेरे दर्शन में आत्मा है तथा चारित्र में गाथा क्रं. १५ ] [ १६६ आत्मा है, मेरे प्रत्याख्यान में आत्मा है, मेरे संवर में तथा योग में, शुद्धोपयोग में आत्मा है। वही एक चैतन्य ज्योति ही परम ज्ञान है, वही एक पवित्र दर्शन है। वही एक चारित्र है तथा वही एक निर्मल तप है । मरता अकेला जीव एवं जन्म एकाकी करे । पाता अकेला ही मरण अरू मुक्ति एकाकी वरे ॥ आत्मा अपने अज्ञान से स्वयं कर्म करता है, स्वयं उसका फल भोगता है, स्वयं संसार में भ्रमता है तथा स्वयं संसार से मुक्त होता है। स्वयं के किए हुये कर्म के फलानुबन्धों को स्वयं भोगने के लिए अकेला जन्म में तथा मृत्यु में प्रवेश करता है। अन्य कोई, स्त्री, पुत्र, मित्रादिक, सुख, दुःख के प्रकारों में बिल्कुल सहायभूत नहीं होते, अपनी आजीविका के लिये मात्र अपने स्वार्थ के लिए स्त्री, पुत्र, मित्रादिक, ठगों की टोली मुझको मिली है। अब इनसे सावधान हो । ज्ञान, दर्शन, लक्षण वाला शाश्वत एक आत्मा मेरा है, शेष सब संयोग लक्षण वाले भाव मुझसे बाह्य हैं। हे आत्मन् ! स्वाभाविक बल सम्पन्न ऐसा तू आलस्य छोड़कर, उत्कृष्ट समता रूपी कुलदेवी का स्मरण करके अज्ञान मंत्री सहित मोह शत्रु का नाश करने वाले इस सम्यग्ज्ञान रूपी चक्र को ग्रहण कर । इस प्रकार जो आत्मा, आत्मा को, आत्मा द्वारा आत्मा में अविचल निवास वाला देखता है, वह अतीन्द्रिय आनन्द मय ऐसे लक्ष्मी के विलासों को अल्पकाल में प्राप्त करता है। जिसने ज्ञान ज्योति द्वारा पाप तिमिर के पुंज का नाश किया है और जो सनातन है, ऐसा आत्मा परम संयमियों के चित्त कमल में स्पष्ट है। वह आत्मा संसारी जीवों के वचन तथा मन के मार्ग से अगोचर है। इस निकट परम पुरुष में विधि क्या और निषेध क्या ? सर्व संग से निर्मुक्त, निर्मोह रूप, अनघ और परभाव से मुक्त ऐसे इस शुद्धात्म तत्व को मैं सम्यक्प से भाता हूँ और नमन करता हूँ। आत्मा निरन्तर द्रव्य कर्म और नो कर्म के समूह से भिन्न है, अन्तरंग में शुद्ध है और शमदम गुण रूपी कमलों को राज हंस है। सदा आनन्दित, अनुपम गुण वाला और चैतन्य चमत्कार की मूर्ति ऐसा यह आत्मा ज्ञान ज्योति
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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