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________________ १३७] [मालारोहण जी गाथा क्रं.११] [ १३८ करूणाभाव, सबसे राग, द्वेष, बैर, विरोध के अभाव रूप वीतराग परिणति होना, यही साधु पद है। २. सत्य महाव्रत- समस्त असत् के अभाव रूप कभी किंचित् भी झूठ न बोलना, सत्य महाव्रत है, जो अपने सत्स्वरूप में लीन होना है। ३. अचौर्य महाव्रत-पर के ग्रहण करने उस ओर की भावना के अभावरूप अचौर्य महाव्रत होता है। ४. ब्रह्मचर्य महाव्रत-अब्रह्म अर्थात् अनात्म वस्तु में रमण न करना, अपने ब्रह्म स्वरूप में लीन रहना, ब्रह्मचर्य महाव्रत है। ५. अपरिग्रह महाव्रत-पर के प्रति ममत्व और मूर्छा का अभाव होकर समदृष्टि समभाव रूप सबमें परमात्म स्वरूप देखना अपरिग्रह महाव्रत सही पालन करने वाला पात्र होता है, जिसके क्रमश: ज्ञान का विकास होता है तथा ज्ञान के आठ अंग प्रगट होते हैं १. शब्दाचार २. अर्थाचार ३. उभयाचार ४. कालाचार ५. विनयाचार ६. उपधानाचार ७. बहुमानाचार ८. अनिन्हवाचार। १.शब्दाचार-शब्द शास्त्र के अनुसार अक्षर, पद आदि शुद्ध पठन, पाठन करना। अक्षर स्वरूप अपने शुद्धात्म स्वरूप को यथार्थ जानना। २. अर्थाचार- यथार्थ शुद्ध अर्थ का अवधारण करना, ध्रुव तत्व का अवधारण करना। ३. उभयाचार-शब्द और अर्थ दोनों का शुद्ध पठन-पाठन । संशय रहित शुद्धात्म स्वरूप का ज्ञान होना। ४. कालाचार- सामायिक ध्यान के समय स्वाध्याय, अपने स्वरूप का चिंतन, मनन ध्यान करना । अन्य शास्त्र आदि नहीं पढना। ५. विनयाचार-विनय भक्ति पूर्वक स्वाध्याय करना, अपने शुद्ध भावों की संभाल विनय भक्ति रखना। ६. उपधानाचार-आराधना की विस्मृति न होवे। अपने स्वरूप का निरंतर स्मरण रखना। ७.बहुमानाचार-जिनवाणी का आदर बहुमान करना, अपने शुद्धात्म स्वरूप का बहुमान होना। ८.अनिन्हवाचार-जिस गुरू अथवा शास्त्र से ज्ञान मिला हो उसे न छिपाना, अपने ज्ञानभाव को हमेशा जाग्रत रखना, ज्ञायक रहना। इस प्रकार ज्ञान की शुद्धि होने से शुद्धात्म तत्व का प्रकाश हो जाता है, जिससे उस रूप रहने का सम्यग्चारित्र प्रगट होता है. इस साधना के लिए तेरह गण प्रगट होते हैं, जो साधु पद में प्रतिष्ठित कराते हैं, पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, जिनका स्वरूप निम्न प्रकार है पापों के सर्व देश त्याग को महाव्रत कहते हैं। पांच महाव्रत- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह। १. अहिंसा महाव्रत- समस्त आरंभ परिग्रह के त्याग से हिंसा के अभाव रूप, अहिंसा प्रगट होना, जिससे छहों काय के प्राणियों के प्रति पांच समिति- ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान निक्षेपण समिति, प्रतिष्ठापन या उत्सर्ग समिति। किसी प्राणी को पीड़ा न पहुंचे तथा अपने परिणामों में कोई विकार न आये, इस भावना से देखभालकर प्रवृत्ति करने को समिति कहते हैं। १.ईर्या समिति- बाहर प्रकाश में देखभाल कर चलना, अन्तरंग में निरंतर ज्ञान का प्रकाश रहना, ईर्या समिति है। २. भाषा समिति-हित-मित संशय रहित-प्रिय वचन बोलना तथा अपने नि:शब्द स्वरूप में स्थिर रहना, भाषा समिति है। ३. एषणा समिति-निर्भीक, निस्पृह भाव से योग्य आहार ग्रहण करना तथा अपने में निरंतर ज्ञानाहार करते रहना, एषणा समिति है। ४. आदान निक्षेपण समिति- अच्छी तरह से देखभाल कर उठना, बैठना, उठाना, धरना, तथा विभावों से संभाल रखते हुए स्वच्छ शुद्ध भावों में रहना। ५. प्रतिष्ठापन समिति- जन्तु रहित स्थान को देखभाल कर मल मूत्रादि त्यागना तथा राग-द्वेषादि मलों से निरंतर सावधान अपने शुद्ध स्वभाव में रहना। इस प्रकार सम्यग्ज्ञान के प्रकाश में निश्चय-व्यवहार के समन्वय पूर्वक
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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