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________________ १३५ ] [मालारोहण जी गाथा क्रं.११] [ १३६ गुण, नि:शंकित आदि दर्शन के आठ अंग, शब्दाचारादि ज्ञान के आठ अंग, पंच महाव्रत आदि तेरह प्रकार का चारित्र यह पचहत्तर गण अपने सत्स्वरूप शुद्धात्मा में हैं, यही देवत्व प्राप्त करने की विधि है, इन गुणों को अपने में प्रगट करना, धारण करना, पुजाना ही सच्ची देव पूजा है। इसका विशेष वर्णन पंडित पूजा और श्रावकाचार जी में किया गया है.ऐसे निज स्वभाव की गुणमाला गूंथो अर्थात् अनंत गुणों के निधान, निज शुद्धात्म स्वरूप की अनुभूति कर निज गुणों को प्रगटाओ। प्रश्न-इन गुणों का क्रम क्या है, किस विधि से देवत्व पद प्रगट होता है? समाधान- सबसे पहले गाथा क्रं.३ के अनुसार भेदज्ञान पूर्वक निज शुद्धात्मानुभूति, सम्यग्दर्शन होने पर इससे दर्शन के आठ गुण प्रगट होते हैं, १. नि:शंकित, २. नि:कांक्षित, ३. निर्विचिकित्सा, ४. अमूढदृष्टि, ५. उपगूहन, ६. स्थितिकरण, ७. वात्सल्य, ८. प्रभावना। इनका संक्षेप स्वरूप निम्न प्रकार है १. निःशंकित अंग- आत्मा के त्रिकाली ध्रुव स्वभाव की श्रद्धा ही नि:शंकित अंग है। शंका से भय का जन्म होता है, जो सात भय मिथ्यादृष्टि को होते हैं, इहलोक भय, परलोक भय, वेदना भय, अरक्षाभय, अगुप्ति भय (चोरभय), मरण भय, अकस्मात भय । सम्यग्दृष्टि इन सात भयों से रहित होता है, शंका या भय रहित होकर दृढ़ता पूर्वक आत्म स्वरूप का श्रद्धान नि:शंकित अंग है। ऐसी निर्भयता में हेतु भूत उसका जिन शासन (वस्तु की स्वतंत्रता) का दृढ श्रद्धान ही है। सच्चे देव, गुरू, शास्त्र का यथार्थ स्वरूप सहित दृढ़ श्रद्धान व्यवहार नि:शंकित अंग है। २.नि:कांक्षित अंग- जिसे आत्मीक अमृत रस का स्वाद आ गया है वह अन्य रस का आकांक्षी नहीं होता, अत: सम्यग्दृष्टि सम्पूर्ण सांसारिक आकांक्षाओं से रहित आत्मा के अतीन्द्रिय आनंद का भोक्ता है, यही परमार्थ से उसका निकांक्षित अंग है। व्यवहार से आत्म भिन्न शरीरादि संयोगी पदार्थ में उसका ऐसा विश्वास है कि उनका संयोग कर्माधीन है. उन सांसारिक सुख भोगों में रागादि कषायों का आलम्बन रहने से वे पाप बंध के कारण बने हैं, जिसका फल अत्यन्त दु:ख है, ऐसे दुःखान्त फल वाले सांसारिक सुख की उसे किंचित् भी बांछा नहीं होती, यह नि:कांक्षित अंग का व्यवहारिक रूप है। ३. निर्विचिकित्सा अंग- जो वस्तु को उसके स्वरूप से देखता है, उसे किसी से घृणा , द्वेष, नहीं होता, उसे धर्म में प्रीति होती है. ज्ञानी को अपने स्वरूप रूप प्रवर्तन में दृढ़ रूचि है, यही उसका निर्विचिकित्सा अंग है। अन्य साधर्मी धर्मात्मा जनों की सेवा करता है, यही उसका व्यवहारिक रूप है। ४.अमूलदृष्टि अंग- सम्यग्दृष्टि के निजात्म तत्व से भिन्न सभी पंचेन्द्रिय विषयों पर मोह भाव नहीं है, यही उसकी मूढ़ता रहित दृष्टि है, अपने निश्चय दर्शन, ज्ञान, चारित्र, स्वभाव में रूचि है, यही अमूढदृष्टि अंग है। मिथ्यामार्ग और मिथ्यामार्गियों की सराहना मन, वचन, काय से न करना ही व्यवहार अमूढदृष्टि अंग है। ५. उपगूहन अंग- ज्ञानी निरंतर अपने गुणों की वृद्धि करता है, यही उसका उपव॑हण नाम का वास्तविक गुण है। धर्मात्मा गुणी पुरुषों में कदाचित् कोई दोष दिखाई दे जाये, तो उसका प्रचार नहीं करता, उनमें वह दोष दूर हो तथा गुण बढ़े, ऐसी सहायता करता है। ६. स्थितिकरण अंग- अपने स्वरूप में स्थित रहना ही स्थितिकरण अंग है। धर्म,धर्मात्मा के आश्रय से चलता है, धर्मात्मा के अपवाद से धर्म का अपवाद होता है, अत: धर्म के मार्ग को पवित्र बनाए रखने के लिए धर्मात्मा का स्थितिकरण आवश्यक है। ७. वात्सल्य अंग- अपने सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, गुणों की प्राप्ति के प्रति अनुराग वात्सल्य अंग है। इसी प्रकार धर्मी, धर्मात्मा के प्रति द्वेष न हो, उसका अपवाद न हो, उसमें गुण प्रगट हों, इसलिए सहयोग और बढ़ावा देना, वात्सल्य अंग है। ८. प्रभावना अंग- अपनी आत्मा में निरंतर रत्नत्रय के तेज को बढ़ाते जाना, तथा बाह्य प्रभावना, दया, दान, संयम, तप, धार्मिक उत्सव करना, कराना प्रभावना अंग है। इस प्रकार शुद्ध सम्यक्त्व निज शुद्धात्मानुभूति सहित आठों अंगों का
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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