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________________ १३१] [मालारोहण जी भोक्तापन का भाव या कोई राग नहीं है ? समाधान- यह तो स्वयं की स्वयं ही जानना है यहां पर की अपेक्षा तो है ही नहीं। आगे सम्यग्ज्ञानी के स्वरूप में अपने आप को देख लो । श्री तारण स्वामी का यह सूत्र हमेशा याद रखना है - "निज हेर बैठो, नहीं तो रार करो" (छद्मस्थ वाणी) ज्ञानी को चाहे जैसे भाव में, चाहे जैसे प्रसंग में साक्षी रूप से रहने की क्षमता है, वह सर्व प्रकार के भावों के बीच साक्षी ज्ञायक रूप से रहता है। जब जीव ज्ञानानंद स्वभाव का अनुभव करने में समर्थ हुआ, तब से समस्त जगत का साक्षी हो गया। साधक जीव, पर द्रव्य रूप द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नो कर्म शरीरादि के प्रति उदासीन है क्योंकि शुद्ध स्वरूप का अनुभव होने से उसे शुद्ध चैतन्य ही उपादेय है। जब से ध्रुव को ध्यान में लेकर आत्म अनुभव हुआ तब से वह जीव पूर्णानंद स्वरूप को उपादेय जानने से रागादि रूप उठने वाले विकल्पों के प्रति उदासीन है। जब यह आत्मा स्वयं राग से भिन्न होकर अपने में एकाग्र होता है तब केवलज्ञान को उत्पन्न करने वाली भेदविज्ञान ज्योति उदय होती है। सम्यग्दृष्टि ज्ञानी को तो बाहर के विकल्प में आना रूचता ही नहीं है। सम्यग्दृष्टि तो जीव, अजीव, आश्रव, बंध आदि के स्वांगों को देखने वाले हैं, रागादि, आश्रव-बंध के परिणाम होते हैं पर सम्यग्दृष्टि उन स्वांगों को देखने वाले ज्ञाता दृष्टा हैं, कर्ता नहीं हैं। ज्ञानी इन सब चल चित्रों को कर्म कृत जानकर शांत रस में ही मगन रहते हैं। साधक जीव को भूमिकानुसार देव, गुरू, शास्त्र की महिमा, भक्ति, श्रुत चिंतवन, अणुव्रत, महाव्रत आदि के शुभ विकल्प आते हैं पर वे ज्ञायक परिणति को रूचते नहीं हैं। अशुभ रागादि के विकल्प तो विषधर जैसे लगते हैं । जिसे सच्चा आत्म ज्ञान होता है उसे मैं अन्य भाव का अकर्ता हूँ ऐसा बोध उत्पन्न होता है और उसकी अहंप्रत्ययी बुद्धि विलीन हो जाती है। वास्तविकता तो यह है कि जिस काल में ज्ञान से अज्ञान निवृत्त हुआ, गाथा क्रं. १०] [ १३२ उसी काल में ज्ञानी मुक्त है। देहादि में अप्रतिबद्ध है, सुख-दुःख, हर्ष-शोक आदि में अप्रतिबद्ध है, ऐसे ज्ञानी को कोई आश्रय या आलम्बन नहीं है। सहज रूप से जो कुछ होता है, वह होता है, जो नहीं होता वह नहीं होता, वह कर्तृत्व रहित है, उसका कर्तृत्व भाव विलीन हो चुका है। जगत जिसमें सोता है, उसमें ज्ञानी जागते हैं, जिसमें ज्ञानी जागते हैं, उसमें जगत सोता है, जिसमें जगत जागता है, उसमें ज्ञानी सोते हैं। जिस-जिस काल में जो-जो प्रारब्ध उदय में आता है उसे समता से भोगता है, यही ज्ञानी पुरूषों का सनातन आचरण है। इतनी बात का निश्चय रखना योग्य है कि ज्ञानी पुरूष को भी प्रारब्ध कर्म भोगे बिना निवृत्त नहीं होते और बिना भोगे निवृत्त होने की ज्ञानी को कोई इच्छा नहीं होती। ज्ञानी पुरूष को काया में आत्म बुद्धि नहीं होती और आत्मा में काया बुद्धि नहीं होती, उसके ज्ञान में दोनों ही स्पष्ट भिन्न प्रतीत होते हैं। ज्ञानी पुरुष को समय-समय में अनंत संयम परिणाम वर्धमान होते हैं। वह संयम, विचार की तीक्ष्ण परिणति से ब्रह्म रस के प्रति स्थिरता होने से उत्पन्न होता है। ज्ञानी निर्धन हो या धनवान हो, अज्ञानी निर्धन हो या धनवान हो, ऐसा कुछ नियम नहीं है। पूर्व निष्पन्न शुभाशुभ कर्म के अनुसार दोनों का उदय रहता है, ज्ञानी उदय में सम रहते हैं, अज्ञानी हर्ष-विषाद को प्राप्त होता है। सत्य का ज्ञान होने के बाद मिथ्या प्रवृत्ति दूर न हो, ऐसा नहीं होता, क्योंकि जितने अंश में सत्य का ज्ञान हो, उतने अंश में मिथ्या प्रवृत्ति भाव दूर होंगे, ऐसा जिनेन्द्र का निश्चय कथन है। ज्ञानी की वाणी पूर्वापर अविरोधी, आत्मार्थ उपदेशक और अपूर्व अर्थ का निरूपण करने वाली होती है और अनुभव सहित होने से आत्मा को सतत् जाग्रत करने वाली होती है। ज्ञानी धर्मात्मा आत्म दशा को पाकर निर्द्वदता से यथा प्रारब्ध विचरते हैं। संसार का अंत समीप है, ऐसा नि:संदेह ज्ञानी का निश्चय होता है। जिन ज्ञानी पुरुषों का देहाभिमान दूर हुआ है, उन्हें कुछ भी करना
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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