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________________ १२९] [मालारोहण जी गाथा क्रं. १०] [ १३० प्रश्न - यह संशय, विभ्रम, विमोह क्या हैं और इनसे रहित सम्यग्ज्ञानी का स्वरूप क्या है? समाधान - यह संशय, विभ्रम, विमोह ज्ञान की कमी के दूषण हैं, इनके होते ज्ञान में सम्यक् ज्ञान पना, स्थिरता, दृढ़ता नहीं होती। सम्यग्दर्शन होने पर भी भ्रमित, भयभीत करते रहते हैं। इनका स्वरूप निम्न प्रकार है (१) संशय-वस्तु स्वरूप स्व-पर का सही ज्ञान न होना, मैं आत्मा तो हूँ पर यह कर्मादि भावों का कर्ता भी तो हैं। जैसे शद्ध निश्चय से आत्मा सिद्ध के समान शुद्ध स्वयं शुद्धात्मा है पर व्यवहार नय से कर्मोदय संयोग में संसारी अशुद्ध कर्ता भोक्ता भी है। एक सही निर्णय न होना संशय है। जब तक संशय रहता है, ज्ञान की सही स्थिति नहीं बनती " संशयात्मा विनश्यति ।" जब यह निर्णय पक्का होता है कि मैं सिद्ध के समान ध्रुव तत्व शुद्धात्मा, शुद्ध चैतन्य मात्र, ज्ञान मात्र हूँ यह सब कर्मादि भावों का मैं कर्ता-भोक्ता नहीं हूँ, इनसे अत्यन्त भिन्न, मात्र ज्ञाता दृष्टा ज्ञायक स्वभावी ही हूँ ऐसा अनुभव प्रमाण ज्ञान होना नि:संशय है। (२) विभ्रम - यह भ्रम होना कि यह शरीरादि कर्म और भाव मैं तो नहीं हूँ, पर यह मेरे हैं, मेरे से ही हो रहे हैं, जैसे अंधकार में रस्सी को देखकर सर्प का भ्रम होना जिससे भयभीत पना, घबड़ाहट होने लगती है ऐसे ही मन में चलने वाले भाव-विभाव, संकल्प-विकल्प को देखकर अपने मानना भ्रमित भयभीत होना यह विभ्रम है। जब यह भ्रम दूर होता है कि नहीं, मैं तो शुद्ध चैतन्य ज्ञान मात्र ध्रुव तत्व ही हैं. यह सब चलने वाले रागादि भाव और कर्मादि मेरे नहीं हैं, सब ज्ञेय भाव-भावक भावों से भिन्न मैं ज्ञान मात्र चेतन सत्ता हूं, यह सब असत् क्षणभंगुर नाशवान हैं। एक समय की पर्याय से भी भिन्न मैं मात्र ध्रुव तत्व हूँ, ऐसा बोध जागने पर विभ्रम मिटता है ज्ञान में निर्भयता आती है। (३) विमोह-इन रागादि भाव और कर्मों का न मैं कर्ता हूंन यह मेरे हैं पर यह हो तो रहे हैं, इनसे आकर्षित होना, अच्छे बुरे मानना, सामने वाले किसी भी व्यक्ति, वस्तु, क्रिया, भाव, पर्याय आदि को देखकर उसमें आकर्षित होना, महत्व देना, अच्छा बुरा लगना, विमोह है। जब तक सामने वाले की सत्ता मानते हो, महत्व देते हो, उसके प्रति आकर्षण है, तब तक विमोह है इससे राग-द्वेष होता है। जब वस्तु स्वरूप का सही ज्ञान होता है कि मैं एक अखंड, अभेद, अविनाशी, ज्ञान मात्र चेतन सत्ता ध्रुव तत्व शुद्धात्मा हूँ यह सब ज्ञेय मात्र पुद्गल परमाणु हैं, जो मेरे चैतन्य ज्योति से प्रकाशित हो रहा है, देखने जानने में आ रहा है पर इसका कोई अस्तित्व सत्ता नहीं है, बस क्षणभंगुर नाशवान है। एक अपने ही सत्स्वरूप का पूर्ण बोध जागता है तब विमोह रहित सम्यग्ज्ञान होता है। इस प्रकार संशय, विभ्रम, विमोह रहित जो ज्ञानी होता है फिर उसे किसी भी परिस्थिति में कुछ नहीं होता, वह हर समय, हर दशा में हमेशा अपने आनंद में मस्त रहता है और ज्ञायक रहकर सब तमाशा देखता है। प्रश्न-फिर उसे (ज्ञानीको) यह मन आदि के चलने वाले भावों से शरीरादि क्रिया और बाहरी संयोग में कैसा लगता है और वह इस परिस्थिति में कैसा रहता है? समाधान- इन सबके बीच वह मात्र ज्ञायक रहता है। प्रश्न - अच्छा बुरा लगता है या नहीं? समाधान - नहीं,अगर अभी अच्छा बुरा लगता है तो वह ज्ञानी नहीं है। प्रश्न- उसके शरीरादि की क्रियायें विपरीत होती रहें,बोलने, खाने, रहने में कैसा ही रहे, क्या यह उसे बंध के कारण नहीं है? समाधान- अगर इन क्रियाओं में उसका राग है तो बंध का कारण है अगर राग नहीं है तो कोई बंध नहीं होता। आगम के परिप्रेक्ष्य में जो ज्ञानी है उसे कर्ता-भोक्तापन का भाव तो होता ही नहीं है तथा यदि वह पूर्ण वीतरागी है तो राग और बंध का प्रश्न ही नहीं है, यदि नीचे की भूमिका व्रती, अव्रती, महाव्रती की दशा में है तो जितना निर्विकार ज्ञान भाव में रहेगा, उतना निर्बन्ध रहेगा तथा जितना राग होगा उतना बंध होगा, पर ज्ञानी को यह बंध संसार का कारण नहीं होता। प्रश्न- यह निर्णय कैसे होवे कि यह ज्ञानी है इसमें इसका कर्ता,
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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