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________________ [मालारोहण जी गाथा क्रं. ६ ] [ ७६ जिस धर्मात्मा को निज शुद्धात्मानुभूति हुई वह प्रतिक्षण मुक्ति की ओर गतिशील हो गया, मुक्ति का सुख वर्तमान पर्याय में आने लगा। सम्यग्दृष्टि ने शुद्ध स्वरूप का अनुभव किया, उसे अतीन्द्रिय सुख का अनुभव धारा प्रवाह रूप से होता है। सम्यग्दृष्टि की पूरी दुनियां से रूचि उड गई है। उसे एक आत्मा में ही रूचि है। वह एक आत्मा को ही विश्राम स्थल मानता है। एक आत्मा की ओर ही उसकी परिणति रह-रह कर जाती है। सम्यग्दृष्टि का ज्ञान अति सूक्ष्म है, फिर भी वह राग और स्वभाव के बीच की संधि में ज्ञान पर्याय का प्रवेश होते ही प्रथम बुद्धिगम्य भिन्नता करता है। सम्यग्दर्शन प्राप्त करने और सम्यग्दर्शन को कायम रखने के मार्ग की यह बात है। प्रथम यह बात सुने, सुनकर विचार करें; पीछे प्रयत्न करें। तीसरा प्रश्न कैसे मिलता है ? "रागादयो पुन्य पापाय दूर, ममात्मा सुभावं, धुव सुद्ध दिस्टं।" रागादि के उदय और पुण्य-पाप की क्रिया, शुभाशुभ भाव से दूर अत्यंत भिन्न मेरा आत्मा स्वभाव से ध्रुव शुद्ध है। ऐसे अपने सत्स्वरूप को देखे तद्रूप रहे, वह मुक्ति सुख पाता है। ज्ञान होने के बाद राग-द्वेष को ज्ञानी अपना नहीं मानता, ज्ञान अपने को जानता है और ज्ञान, राग द्वेष मेरे में नहीं हैं ऐसा भी जानता है। ऐसा ज्ञान का स्व-पर प्रकाशक स्वभाव है। ज्ञान, अपने श्रद्धा आदि अनन्त गुणों को जानता है और राग द्वेष मेरे में नहीं हैं ऐसा भी जानता है, ऐसा ज्ञान का जानने का स्वभाव है। मैं मेरे रूप से हूँ और शुभाशुभ भाव मेरे में नहीं हैं। अपनी अपने में अस्ति और पर की अपने में नास्ति, इस प्रकार अस्ति-नास्ति जिस प्रकार है वैसा ज्ञान जानता है । वही निर्विकल्प आनन्द मुक्ति सुख में रहता है। प्रश्न - क्या इतना जानने से पूर्ण दशा को प्राप्त हो गया? समाधान - सम्यग्दृष्टि पूर्ण दशा को प्राप्त नहीं हुआ परन्तु पूर्ण दशा का भान हो गया है। जिस प्रकार चन्द्रमा की दज ऊगे. उसमें पूर्ण चन्द्र दिख जाता है। दूज स्वयं को भी दिखाती है। पूर्ण चन्द्रमा को भी दिखाती है। पूर्ण उघड़ना बाकी है। उसे दिखाती है और आवरण में भी दिखाती है उसी प्रकार जिसे सम्यग्दर्शन प्रगट हुआ है वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान रूप प्रगट हुई पर्याय को जानता है। पूर्ण स्वभाव को जानता है। पूर्ण स्वरूप जो प्रगट होना बाकी है, उसे जानता है और निमित्त रूप आवरण को भी जानता है। ऐसी सम्यग्दर्शन की महिमा है परन्तु अभी अधरी पर्याय है। केवलज्ञान नहीं प्रगट हुआ है। दृष्टि से बंध है-दृष्टि से मुक्ति है। ज्ञानी को अस्थिरता का राग होने पर ज्ञान दशा और आनन्द की दशा-वर्तती ही रहती है, उसे भेद नहीं करना पड़ता है। स्वभाव सन्मुख हुआ है और राग से विमुख हुआ है। उसे इस तरफ का स्वभाव तरफ का प्रयत्न चालू ही है, करना नहीं पड़ता। आत्मा पूर्णानन्द का नाथ है। इस पूर्णानन्द के नाथ का पर्याय में शान हुआ इस त्रिकाली शान स्वभावी आत्मा का जो ज्ञान और श्रद्धान पर्याय में हुआ उसका जीवन नियम से राग के अभाव रूप वैराग्य मय ही होता है। पुण्य-पाप रहित निज शुद्धात्मा की अन्तर में दृष्टि होने पर स्वानुभूति प्रगट होती है और वही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान रूप समयसार है। स्व-पर का श्रद्धान होने पर संवर, निर्जरा रूप, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र होता है। इससे पर के लक्ष्य से होने वाले पुण्य-पाप व आश्रव बंध से छूटने का सहज उपाय बनता है तथा पूर्ण दशा सहज में ही प्रगट होती है। प्रश्न - अभी वर्तमान संसार संयोगी दशा अशुद्ध पर्याय में अपने को पूर्ण शुद्ध मानना क्या अहितकर न होगा? समाधान - अध्यात्म में सदैव शुद्ध निश्चय नय ही मुख्य है। इसी के आश्रय से धर्म होता है। व्यवहार नय के आश्रय से कभी अंश मात्र भी धर्मनहीं होता अपितु उसके आश्रय से तो राग-द्वेष के विकल्प उपजते हैं।
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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