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________________ ७३ ] [मालारोहण जी गाथा क्रं. ६ ] [ ७४ गाथा-६ जे मुक्ति सुष्यं नर कोपि सार्धं, संमिक्त सुद्धं ते नर धरेत्वं । रागादयो पुन्य पापाय दूरं, ममात्मा सुभावं धुव सुद्ध दिस्टं। शब्दार्थ - (जे) जो (मुक्ति सुष्यं) मुक्ति का सुख (नर) मुमुक्षुजिज्ञासु मनुष्य (कोपि) कोई भी (साध) साधक है चाहता है (संमिक्त सुद्ध) शुद्ध सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व (निश्चय सम्यग्दर्शन) (ते) वह (नर) पुरूषार्थी वीर (धरेत्वं) धारण करे (रागादयो) रागादि के उदय (पुन्य पापाय) पुण्य और पाप से (दूरं) दूर, अत्यन्त भिन्न (ममात्मा) मेरा आत्मा (सुभाव) स्वभाव से (धुव) ध्रुव-अटल (सुद्ध) शुद्ध (दिस्ट) देखता है, देखे। विशेषार्थ - जो कोई नर निराकुल परमानन्द मई, मुक्ति का सुख प्राप्त करना चाहते हैं, वे पुरूषार्थी नर, निज शद्धात्मा की निश्चय अनुभूति रूप शुद्ध सम्यक्त्व को धारण करें तथा कर्मोदय जनित-रागादि परिणामों से और पुण्य-पापरूप क्रिया से अत्यन्त भिन्न शुद्ध प्रकाशमयी मेरा आत्मस्वरूप सदाकाल ध्रुव और शुद्ध है, ऐसा देखें, अनुभव करें, वह मुक्ति के अतीन्द्रिय सुख को प्राप्त करते हैं। मुक्ति का सुख कैसा होता है और किसे मिलता है ? यह प्रश्न पूछे जाने पर सद्गुरू कहते हैं-जो कोई नर मुक्ति के सुख को चाहते हैं अर्थात् निराकुल आनन्द में रहना चाहते हैं, वे आकुलता रहित निज शुद्ध स्वभाव का अनुभव करें क्योंकि आतम को हित है सुख, सो सुख आकुलता बिन कहिये। आकुलता शिव माहिं न तातें, शिव मग लाग्यो चहिये । अब मुक्ति का सुख कैसा होता है। इसके लिए तो संसार में किसी वस्तु से कोई उपमा ही नहीं दी जा सकती। जैसे अमृत का स्वाद कैसा होता है या घी का स्वाद कैसा होता है, यह बताना-असम्भव है। ऐसे ही मुक्ति का सुख जो कि अतीन्द्रिय है अवक्तव्य है, इसको कैसे बताया जावे, जैसे-गूंगा गुड़ खाये और पूछा जाये कि स्वाद बताओ? तो वह प्रसन्न आनन्दित हो सिर हिलाता है और हूँ-हूँ करता है। इसी प्रकार मुक्ति का सुख तो अतीन्द्रिय, अवक्तव्य, अनुपमेय है वह तो जो जीव अपने स्वभाव में रहता है वही जानता है, उसे दूसरा कौन जान सकता है या बता सकता है। जैसे-कोई भिखारी किसी राजा का अतिथि बने और राजमहल में राजा जैसा सुख भोगे और फिर भिखारियों के बीच आवे और भिखारी पूछे कि बताओ राजा के यहाँ कैसा सुख भोगा? तो वह भिखारियों के बीच कौन सी उपमा देकर राज्य के सुख का वर्णन कर सकता है। इसी प्रकार यह तो अपूर्व बात है। जिसके लिए जीव अनादि से खोजता फिर रहा है। जैसा कि छहढाला में कहा है कि "जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहें दुख ते भयवन्त"॥ जिस सुख के प्राप्त होने पर फिर कभी दु:ख होता ही नहीं है बस वही मुक्ति सुख है। जिस सुख के प्राप्त होने पर जो सादि अनन्त काल तक छूटता नहीं वही मुक्ति सुख है जिस सुख के प्राप्त होने पर संसार की सारी चाह, कामना, वासना समाप्त हो जाती है वह मुक्ति सुख है। जिस सुख की एक झलक मिलने पर संसार के सारे सुख धूल में मिल जाते हैं। जैसा आचार्यों ने कहा है चक्रवर्ती की सम्पदा, इन्द्र सरीखे भोग । काक वीट सम लखत है, सम्यग्दृष्टि लोग ॥ जो ऐसे अतीन्द्रिय सुख को चाहते हैं, वे सम्यग्दृष्टि मुमुक्षु नर होते हैं अर्थात् सम्यग्दृष्टि ही मुक्ति सुख चाहता है। दूसरा प्रश्न है किसे मिलता है ? तो सद्गुरू कहते हैं "संमिक्त सुद्ध, ते नर धरेत्व" जो नर शुद्ध क्षायिक सम्यक्त्व को धारण करते हैं अर्थात् मैं आत्मा, शुद्धात्मा, परमात्मा हैं. यह शरीरादि मैं नहीं हूँ, ऐसे भेदज्ञान पूर्वक निज शुद्धात्मानुभूति करते हैं वे नर हैं। रागादि से भिन्न चिदानन्द स्वभाव का भान और अनुभव हुआ, वहाँ धर्मी को नि:संदेह ज्ञान होता है कि मुझे आत्मा का कोई अतीन्द्रिय आनन्द का वेदन हुआ, सम्यग्दर्शन हुआ, आत्मा में से मिथ्यात्व का नाश हो गया।
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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