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________________ [मालारोहण जी गाथा क्रं. ३ ] [ १० कुछ भी करता-धरता नहीं है। इसी बात को समयसार कलश में कहा है आत्मा ज्ञान स्वयं ज्ञान, ज्ञानादन्यत्करोति किम् । परभावस्य कर्तात्मा, मोहोऽयं व्यवहारिणाम् ॥ आत्मा ज्ञानस्वरूप है, स्वयं ज्ञान ही है, वह ज्ञान के अतिरिक्त और क्या करे? आत्मा परभावों का कर्ता है, ऐसा मानना कहना, व्यवहार विमुग्धों का मोह ही है, अज्ञान ही है। इसी बात को समयसार में कहा है कम्मस्सय परिणाम, णो कम्मस्सय तहेव परिणाम। ण करेइ एयमादा, जो जाणदि सो हवदिणाणी ॥ जो आत्मा क्रोधादि भावकर्मों, ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मों एवं शरीरादि नो कर्मों का कर्ता नहीं होता, उन्हें मात्र जानता ही है, वही वास्तविक ज्ञानी भेदज्ञान - इस शरीरादि से भिन्न मैं एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूं यह शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं। इससे क्या लाभ है यह बात समयसार कलश १२९-१३१ में कही हैयह साक्षात् संवर शुद्धात्म तत्व की उपलब्धि (आत्मानुभवन) से होती है और शुद्धात्म तत्व की उपलब्धि भेदज्ञान से ही होती है अत: यह भेद विज्ञान अत्यन्त भाने योग्य है। यह भेदविज्ञान तब तक अविच्छिन्न धारा से भाना चाहिए, जब तक कि ज्ञान पर भावों से छूटकर ज्ञान में ही स्थिर न हो जावे क्योंकि आज तक जितने भी सिद्ध हुए हैं, वे सब भेदविज्ञान से ही हुए हैं और जितने भी जीव कर्म बंधन में बंधे हैं वे सब भेदविज्ञान के अभाव से बंधे हुए हैं। इसी बात को समयसार गाथा २९६ में कहा है - हे आत्मन् ! तू इस ज्ञानानंद भगवान आत्मा में ही नित्यरत रह इसमें ही नित्य संतुष्ट रह इसमें ही तृप्त हो ऐसा करने से तुझे उत्तम सुख की प्राप्ति होगी। इसी बात को योगसार दोहा ५८ में कहा है कि - देहादिरूप मैं नहीं है. यही ज्ञान, मोक्ष का बीज है। जैसे आकाश पर पदार्थों के साथ संबंध रहित है असंग, अकेला है, वैसे ही शरीरादि को जो अपने आत्मा से पर जानता है, वही परम ब्रह्मस्वरूप का अनुभव करता है व केवलज्ञान का प्रकाश करता है। जैसे आकाश के भीतर एक ही क्षेत्र में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, असंख्यात कालाणु, अनंतजीव और अनंतानंत पुद्गल द्रव्य रहते हैं तथापि उनकी परिणति से आकाश में कोई विकार या दोष नहीं होता है। आकाश उनसे बिल्कुल शून्य, निर्लेप, निर्विकार बना रहता है, कभी भी उनके साथ तन्मय नहीं होता है। आकाश की सत्ता अलग व आकाश में रहे हए चेतन-अचेतन पदार्थों की सत्ता अलग रहती है, वैसे ही ज्ञानी को समझना चाहिए कि आत्मा आकाश के समान अमूर्तिक है। आत्मा के सर्वअसंख्यात प्रदेश अमूर्तिक हैं, मेरी आत्मा के आधार में रहने वाले तैजस शरीर, कार्माण आत्मा ज्ञान मात्र है इसके लिए योगसार में नौ दृष्टांत दिए हैं। एयण दीउ विणयर दहिउ, दुख धीव पाहाणु। सुण्णउ उ फलिहउ अगिणि, णव दिहता जाणु ॥१७॥ रत्न, दीप, सूर्य, दही दूध घी, पाषाण, सुवर्ण, चांदी, स्फटिकमणि और आग इन नौ दृष्टातों से जीव को जानना चाहिए। यह न कुछ करता है न किसी से मिलता है। सब से निर्लिप्त न्यारा अपने में परिपूर्ण शुद्ध-बुद्ध अविनाशी ज्ञाता-दृष्टा चेतन तत्व है। (४) इसको जानने से क्या लाभ है ? "ते सुद्ध दिस्टि संमिक्त वीज"-जो शरीरादि से भिन्न अपने सत्स्वरूप-शुद्धात्म तत्व को जान लेता है, निज शुद्धात्मानुभूति हो जाती है, वहीशुद्ध दृष्टि है और यही सच्चा पुरूषार्थ है। इसी से मोक्ष का मार्ग प्रारंभ होता है, यह भेदज्ञान हो जाना ही जीवन की सार्थकता है।
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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