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________________ [मालारोहण जी गाथा क्रं.३ ] हैं। जिसने भेदज्ञान पूर्वक शरीरादि पुदगल कर्मों से अपने स्वरूप को भिन्न जान लिया उसे आत्मा कहते हैं और जो अपने शुद्ध स्वभाव मय हो गया वही परमात्मा शुद्धात्म तत्व है। प्रश्न - यह जीवात्मा कितना बड़ा है इसका स्वरूप क्या है, यह क्या करता है, शुखात्मतत्व को जानने से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है? इसके समाधान में यह तीसरी गाथा कही गई है गाथा-3 काया प्रमानं त्वं ब्रह्मरूपं, निरंजनं चेतन लष्यनेत्वं । भावे अनेत्वं जे न्यान रूपं, ते सुद्ध दिस्टी संमिक्त वीर्ज। शब्दार्थ - (काया प्रमानं) शरीर के प्रमाण अर्थात् जिस शरीर में जीव होता है वह उसी के बराबर उसी आकार में रहता है (त्वं) पर तुम अर्थात् जीवात्मा (ब्रह्मरूपं) ब्रह्म स्वरूप (परमात्म तत्व) (निरंजन चेतन लष्यनेत्वं) निरंजन अर्थात् सारे कर्म मल से रहित चेतन लक्षण वाला है (भावे अनेत्वं) यह अंतरंग में चलने वाले औदयिक भाव सब अनित्य हैं (जे न्यान रूप) तम ज्ञान स्वरूपी हो जो तुम्हारे जानने में आते हैं। जो भेदज्ञान पूर्वक इस शरीर और इन भावों से अपने को भिन्न अनुभवता है (ते सुद्ध दिस्टी) वह शुद्ध दृष्टि है (संमिक्त वीज) यही सच्चा पुरूषार्थ है। विशेषार्थ - हे आत्मन् ! तुम इस शरीर के बराबर, शरीर से भिन्न, ब्रह्मस्वरूपी, निरंजन (सर्व कर्ममलों से रहित) चेतन लक्षणमयी हो कर्मोदयिक भाव अनित्य हैं, उन सबको जानने वाले ज्ञान स्वरूपी तुम हो। भेदज्ञान पूर्वक इस शरीर और इन भावों से भिन्न अपने सत्वस्वरूप को जानने वाला ही सम्यग्दृष्टि है और यही सच्चा पुरूषार्थ है, जो मुक्ति मार्ग का प्रथम सोपान है और यही भेदज्ञान करना है। (१) जीवात्मा कितना बड़ा है- इस प्रश्न का उत्तर- "काया प्रमान" संसार में यह जीव आत्मा जिस शरीर में रहता है उसी के आकार उतना ही बड़ा होता है यह जीव के प्रदेशों की संकोच-विस्तार होने रूप एक विशेष शक्ति है, वैसे यह बहुत सूक्ष्म अरूपी है। इसी बात को द्रव्य संग्रह में कहा हैजीवो उवओगमओ, अमुत्ति कत्ता सदेह परिमाणो । भोत्ता संसारत्थो, सिद्धो सो विस्ससोइल गई ।।2।। जीव जीने वाला, उपयोग मयी, अमूर्तिक, कर्ता, शरीर प्रमाण, कर्मों के फल का भोक्ता, संसार में स्थित, सिद्ध और स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करने वाला है और जब पूर्ण मुक्त सिद्ध होता है तब अपने ही शद्ध प्रदेशों में अरूपी निराकार परमानंद में रहता है। (२) इसका स्वरूप क्या है -"ब्रह्मरूपं निरंजन चेतन लण्यनेत्व" यह आत्मा, ब्रह्म स्वरूप, आनंदकन्द विज्ञान घन परमदेव निरंजन है अर्थात् कर्म कालिमा से विनिर्मुक्त है, परम चैतन्य ज्योति से चिन्हित है पूर्ण ज्ञान मई परम ज्योति स्वरूप है। इसी बात को योगसार में कहा हैणिम्मलु णिक्कलु सुद्ध जिणु, विण्हु बुद्ध सिवसंतु । सो परमप्पा जिण भणिउ, एहउ जाणि णिभंतु ।।3।। जो कर्म मल व रागादि मल रहित है जो निष्कल अर्थात् शरीर रहित है, जो शुद्ध व अभेद एक है। जिसने आत्मा के सर्व शत्रुओं को जीत लिया है, इसलिए जिन है जो विष्णु है अर्थात् ज्ञान की अपेक्षा सर्व लोकव्यापी है, सर्व का ज्ञाता है जो बुद्ध है अर्थात् स्व-पर, तत्व को समझने वाला है. जो शिव है, परम कल्याणकारी है जो परमशांत व वीतराग है. वही आत्मा-परमात्मा है ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है इस बात को शंका रहित जान। (३) क्या करता है - "भावे अनेत्वं जे न्यान रूपं" जो भी पर पर्याय शरीरादि भाव विभावरूप परिणमन चलता है, वह अनित्य क्षणभंगुर नाशवान है. इन सबको मात्र देखता जानता है, मात्र ज्ञान स्वरूपी है आत्मा
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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