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________________ श्री उपदेश शुद्ध सार जी-विषयानुक्रम * गाथा १७१ से २५३ तक - दर्शन मोहांध दृष्टि के कारण - सच्चे देव, गुरू, शास्त्र - दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, संसार, शरीर, भोग की विपरीत मान्यता होती है और इससे जीव संसार में रुलता है, ज्ञान दृष्टि होने पर ही इससे छुटकारा होता * * ॐ गाथा २५४ से २६५ तक - मन की चंचलता से पर्याय और इन्द्रिय विषयों की प्रगटता, इनसे छूटने का उपाय, ज्ञान दृष्टि और मन का संयम। गाथा २६६ से २७४ तक- शब्द की कीमत और विशेषता, इष्ट और अनिष्ट शब्द का प्रभाव। गाथा २७५ से २८३ तक - रसना और स्पर्शन इन्द्रिय का निकट सम्बन्ध, रसना इन्द्रिय के दो काम- स्वाद लेना और बोलना। गाथा २८४ से २९४ तक - कृत, कारित, अनुमति से कर्मोत्पत्ति और कर्मों का स्वभाव। श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी * गाथा ३५६ से ३९१ तक - ज्ञानावरणादि घातिया कर्मों के क्षय से अनन्त चतुष्टय अरिहन्त पद की प्रगटता । * गाथा ३९२ से ३९९ तक - अनन्त चतुष्टय धारी परमात्मा की अंतरंग दशा और मुक्ति गमन। चतुर्थखण्ड कर्मावरण मत देखो, ज्ञान स्वभाव से सब विला जाते हैं - सिख स्वरूप का वर्णन। * गाथा ४०० से ४५९ तक - इन्द्रिय विषय, कषाय, संज्ञा, कृत आदि, आशा आदि दोष, तथा मोह मान माया रूप जो कर्मोदायिक परिणमन है, इसकी ओर मत देखो, अपने ममल स्वभाव में रहो तो यह सब गल जायेंगे, विला जायेंगे। आवरनं नहु पिच्छई, विमल सहावेन कम्म संषिपनं । * गाथा ४६० से ४६८ तक- चौदह प्राण - (पांच इन्द्रिय, तीन बल, आयु और स्वासोच्छ्वास) यह दश प्राण तो सामान्य हैं ही। विशेष - सुख, सत्ता, बोध और चेतना, यह चार प्राण विशिष्ट अनुभूति है। चैतन्य स्वरूप का अनुभवन आनन्द परमानंद मय करता हुआ आत्मा को परमात्मा बनाता है। * गाथा ४६९ से ४८७ तक - सम्यग्दर्शन के नि:शंकित आदि आठ अंगों का स्वरूप वर्णन। * गाथा ४८८ से ५२६ तक - सिद्ध परमात्मा और सिद्ध स्वरूप का वर्णन। * गाथा ५२७ से ५४२ तक - उपदेश का शुद्ध सार-परम जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है कि तुम अपने ज्ञान स्वभाव में रहो * तृतीय खण्ड चिदानंद चैतन्य स्वभाव की महिमा और केवलज्ञान स्वरूप । * गाथा २९५ से ३२४ तक - चिदानंद चैतन्य स्वभाव की महिमा- उसमें लीनता से समस्त कर्मावरणों का क्षय और अरिहंत पद की प्राप्ति। * गाथा ३२५ से ३३५ तक - अक्षर, स्वर, व्यंजन के माध्यम से परम तत्त्व की साधना। * गाथा ३३६ से ३५५ तक - परम तत्त्व परमेष्ठी पद की साधना और प्राप्ति ही अर्थ भूत (प्रयोजनीय ) है ; तथा शब्दों के माध्यम से निज में लीनता की महिमा। (१६)
SR No.009713
Book TitleAdhyatma Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Jain Tirthkshetra Nisai
PublisherTaran Taran Jain Tirthkshetra Nisai
Publication Year
Total Pages469
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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