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________________ ४३८ वक्रोक्तिजीवितम् किससे-पूर्वोत्तरादि के साङ्गत्य से, पूर्व-पूर्व का उत्तर उत्तर के साथ जो साङ्गत्य अर्थात् उपजीव्य उपजीवक भावरूप अत्यधिक सुगमता उससे (प्रकरणों का विन्यास आह्लादकारी होता है )। इदमुक्तम्भवति-प्रबन्धेषु पूर्वप्रकरणम् अपरस्मात् परस्य परस्य प्रकरणान्तरस्य सरससम्पादितसन्धिसम्बन्धसंविधानकसमय॑माणकता प्राणं प्रौढिप्ररूढवक्रतोल्लेखमाह्लादयति । उत्तरोत्तर कहने का अभिप्राय यह है कि-प्रबन्धों में पूर्व पूर्व प्रकरण उत्तरोत्तर अन्य प्रकरणों की सरस ढङ्ग से सम्पादित की गयी ( मुख आदि ) सन्धियों के सम्बन्ध के संविधान द्वारा की गई प्राणप्रतिष्ठा वाली प्रीढि से उत्पन्न होने वाला वक्रता विधान आह्लादित करता है । .. यथा 'पुष्पदूषितके' प्रथमं प्रकरणम् | अतिदारुणाभिनव "वेदनानिरानन्दस्य"समागतस्य समुद्रतीरे समुद्रदत्तस्योत्कण्ठाप्रकाशनम् । द्वितीयमपि-प्रस्थानात् प्रतिनिवृत्तस्य निशीथिन्यामुत्कोचालकारदानमूकीकृतकुवलयस्य कुसुमवाटिकायामनाकलिनमेव तस्य सहचरीसङ्गमनम् । तृतीयपि सम्भावितदुर्विनयेऽपि(१)नयदत्तनन्दिनीनिर्वासनव्यसनतत्समाधाननिबन्धनम्। चतुर्थमपि-मथुराम्प्रतिनिवृत्तस्य कुवलयप्रदृश्यमानाङ्गुलीयकसमावेदितविमलसम्पदः । कठोरतरगर्भभार• खिन्नायां स्नुषायां निष्कारणनिष्कासनादनाहितप्रवृत्तेर्महापातकिनमात्मानं मन्यमानस्य सार्थवाहसागरदत्तस्य तीर्थयात्राप्रवर्तनम् । पञ्चममपि-वनान्तः "समुद्रदत्तकुशलोदन्तकथनम् । षष्ठमपि-सर्वेषां विचित्र सङ्ख्यासमागमाभ्युपायसम्पादकमिति । एवमेतेषां रसनिष्यन्दतत्पराणां तत्परिपाटिः कामपि कामनीयकसम्पदमुद्भावयति । जैसे पुष्पदूषितक में प्रथम प्रकरण अत्यन्त दारुण नयी...."वेदना के कारण मानन्दहीन-- और समुद्र के किनारे आये हुए समुद्रदत्त की उत्कण्ठाविशेष का प्रकाशन किया गया है । दूसरा (प्रकरण ) भी -यात्रा से वापस लौटे हुए, तथा रात में चूंस रूप में ( अंगूठी रूप) आभूषण देकर ( द्वारपाल) कुवलय को मूक कर देने वाले उस ( समुद्रदत्त) का पुष्पवाटिका में असम्भावित सहचरी के साथ समागम ( ही प्रस्तुत करता है ) तीसरा (प्रकरण भी)- सम्भावित धृष्टता वाले होने पर भी नयदत्त की पुत्री के निर्वासन की विपत्ति एवं उसके समाधान का वर्णन (प्रस्तुत करता है)। चतुर्थ (प्रकरण ) भी-मथुरा को लौट आए हुए कुवलय के द्वारा दिखाई जाती हुई अंगूठी से सूचित विमल सुख सम्पदा वाले अत्यन्त परिपक्व गर्भ के भार से खिन्न पुत्रवधूविषयक निष्कारण निष्कासन के कारण प्रवृत्रिहीन और अपने को महापापी मानने वाले व्यापारी सागरदत्त के
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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