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________________ ४३७ चतुर्थोन्मेषः कपूर इव दग्धोऽपि शक्तिमान् यो जने जने। नमः शृङ्गारबीजाय तस्मै कुसुमधन्वने ॥ ३६॥ कर्पूर के समान जला दिए गए भी जो जन-जन में शक्तिमान ( रूप से विद्यमान) है उस फूलों का धनुष धारण करने वाले शृङ्गार के बीजभूत (कामदेव) को नमस्कार है ॥ ३९ ॥ श्रवणैः पेयमनेकैदृश्यं दीर्घश्च लोचनैर्षहुभिः । भवदर्थमिव निबद्धं नाट्यं सीतास्वयंवरणम् ॥४०॥ यह 'सीतास्वयंवरण' नामक नाटय मानों आप लोगों के लिये ही विरचित है इसको । संगीत सुधा आप लोगों ) के श्रवणों के द्वारा पान करने योग्य है और इसकी ( अभिनयरमणीयता आपके ) अनेकानेक विशाल लोचनों के द्वारा दर्शनीय है ॥ ४० ॥ ___ इसकी जो व्याख्या कुन्तक ने को है वह पाण्डुलिपि की भ्रष्टता के कारण उधृत नहीं की जा सकी। इसके बाद कुन्तक ने उत्तररामचरितम् के सातवें अङ्क से उदरण प्रस्तुत किया है जहां राम 'हा कुमार हा लक्ष्मण' इत्यादि कहते हैं। . अपरमपि प्रकरणवक्रतायाः प्रकारमाविष्करोतिप्रकरन वकता के अन्य ( नवम ) भेद को प्रस्तुत करते हैंमुखादिसन्धिसन्धायि संविधानकबन्धुरम् । पूर्वोत्तरादिसाङ्गत्यादङ्गानां विनिवेशनम् ॥ १४ ॥ न त्वमार्गग्रहग्रस्तग्रहकाण्डकदर्थितम् । वक्रतोल्लेखलावण्यमुल्लासयति नूतनम् ॥ १५ ॥ मुखादि सन्धियों की मर्यादा के अनुरूप, कथानक से शोभित होने वाला, पूर्व तथा उत्तर के समन्वय से अङ्गों ( अर्थात् प्रकरणों) का विन्यास वक्रता की सृष्टि से अपूर्व सौन्दर्य को प्रकट करता है न कि मनुचित मार्ग रूपी ग्रह से ग्रस्त ग्रहण के अवसर से कदर्षित प्रकरण ॥ १४-१५॥ नोट-दुर्भाग्य से इस कारिका की वृत्ति का एक भाग पाण्डुलिपि में गायब हो गया है । तथा जो शेष बचा है वह इतना भ्रष्ट है कि वह भी एक सही अभिप्राय को दे सकने में सर्वथा असमर्थ है । कारिका में आये हुए 'पूवोत्तरादिसाङ्गत्याद्' की व्याख्या डा. हे द्वारा सम्पादित इस प्रकार है___ कस्मात्-पूर्वोत्तरादिसाङ्गत्यात् , पूर्वस्य पूर्वस्योत्तरेणोत्तरेण यत्साअत्यमतिशयितसौगम्यम उपजीव्योपजीवकामवलक्षणं तस्मात् ।
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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