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________________ ( ५५ ) अर्थात् विश्वरूप में आ जाना ही क्रियाशक्ति है-'सर्वाकारयोगित्वं क्रियाशक्तिरिति-तन्त्रसार। ___ इन्हीं उपर्युक्त पाँच शक्तियों के द्वारा परमशिव इस जगत्प्रपञ्च को परिस्फुरित करता है । अर्थात् जब उसे यह इच्छा होती है कि 'मैं एक से अनेक हो जाऊँ तो उसकी शक्ति में स्पन्दन क्रिया होती है । 'स्पन्द' शब्द 'स्पदि किजिच्चलने' धातु से निष्पन्न होता है जिसका अर्थ हिलना, फड़कना अर्थात् स्फुरण होता है। इस प्रकार शक्ति में कुछ परिस्फुरण होता है जो कि कुछ कुछ चलने के कारण स्पन्द कहा जाता है। यही शक्ति का स्पन्द ही वस्तुतः जगत् है । जगत् की सत्ता स्पन्दरूप ही है और यह स्पन्द शक्ति का स्वरूप ही है। शक्ति का परमशिव से अभेद सिद्ध कर ही चुके हैं। अतः यह सिद्ध हुआ कि यह जगत् परमशिव से पृथक् नही । अतः वह अद्वैत है-जैसा 'प्रत्यभिज्ञाहृदय' में कहा गया है: "पराशक्तिरूपा चितिरेव भगवती शक्तिः शिवभधारकाभिन्ना तत्तदनन्तजगदात्मना स्फुरति ।" अब प्रश्न यह उठता है कि परमशिव तो एक पर इस जगत्वैचित्र्य में .. अनेकता है तो एक ही अनेक हो, यह कैसे सम्भव है ? इस प्रश्न का उत्तर प्रत्यभिज्ञादर्शन के अनुसार यह है कि 'वस्तुतः यह सब एक ही है किन्तु उसमें . अनेकता का आभास होता है ठीक उसी प्रकार जैसे कि बढ़े हुए मयूर के पंखों का रंगवैचित्र्य जो अनेक प्रतीत होता है, वस्तुतः वह उसके अण्डे के भीतर के एकरूप ही तरलपदार्थ में निहित रहता है। उसमें मयूर के बड़े होने पर हमें अनेकता का आभास होने लगता है । इसी को 'मयूराण्डरसन्याय' कहते हैं। इसी 'स्पन्द' की व्याख्या करते हुए 'स्पन्दप्रतीपिका' में उत्पलाचार्य कहते हैं-"स्पदि किञ्चिच्चलने इति स्पन्दनात् स्पन्दः । स्पन्दनच निस्तरङ्गस्यास्य तावत् परमात्मनः युगपनिर्विकल्पा या सर्वत्रौन्मुख्यवृत्तिता।" अर्थात् स्पन्दन क्या है ? निस्तरङ्ग अर्थात् शान्त, अचञ्चल, निर्विकार परमात्मा परमशिव की एक साथ जो सर्वत्र अर्थात् विश्वरूप समस्त आकारों में प्रोन्मुख्यवृत्तिता अर्थात् उसकी और उन्मुख हो जाना—वही स्पन्द है। आशय यह कि अद्वैत शिव का अनेकता में आभास ही स्पन्द है। इस स्पन्द के उपचार से 'सामान्य' और 'विशेष' दो रूप माने जाते हैं। 'सामान्यस्पन्द' का रूप है “परमकारणभूतस्य सत्यस्य प्रात्मस्वरूपस्य 'अयमहमस्मि' अतः सर्व प्रभवति, अत्रैव च प्रलीयते इति प्रत्यवमर्शात्मको निजो धर्मः सामान्यस्पन्दः।" (२१५ स्पन्दकारिका विकृति ) अर्थात् इस जगत् के परमकारणभूत सत्य अपने स्वरूप का-यह मैं हूँ इसी से सब प्रभूत होता है, इसी में सब प्रलीन हो जाता है
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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