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________________ वातजावितम् होने से (श्लेष नहीं होगा) क्योंकि इसमें बहुतों को अथवा दो की सभी अर्थों की गौणता होती है प्रधान अर्थपरक रूप में उनका पर्यवसान होने के कारण। __ और भी, श्लेष में एक ही शब्द के द्वारा एक साथ ही दीपक से प्रकाश की तरह दो पदार्थों का प्रकाशन अथवा दो शब्दों एवं अर्थों का प्रकाशन होता है इस प्रकार वहाँ पर शब्द सर्वसाधारण की प्रतीति कराने के लिए ही आता है। सहोक्ति के उस प्रकार के अपने अङ्ग के न होने पर एक ही वाक्य से बार-बार आवर्तन होने के नाते दूसरी वस्तु का प्रकाशकत्व विहित किया जाता है । इसीलिये यहाँ पर आवृत्ति शब्द के औचित्य को प्राप्त करता है। 'सर्वक्षितिभृतां नाथ' इत्यत्र वाक्यैकदेशे श्लेषानुप्रवेशः सम्भवतीत्युच्यते । अत्र वाक्यै कदेशे श्लेषस्याङ्गत्वम्, मुख्यभावः पुनः सहोक्तरेव । (यदि पूर्वपक्षी यह कहे कि ) 'सर्वक्षितिभृतां नाथ' इस वाक्य के एक अंश में श्लेष का अनुप्रवेश तो सम्भव हो जाता है। तो ग्रन्थकार इसका उत्तर देते हैं कि-(ठीक है यहाँ श्लेष अलङ्कार है परन्तु ) यहाँ वाक्य के एक अंश में श्लेष अङ्ग रूप में ही आया है, प्रधानता तो सहोक्ति की ही है । (अतः 'प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ति' इस न्याय से यहाँ सहोक्ति ही कही जायगी-श्लेष नहीं) . __ तदेवमावृत्य वस्त्वन्तरावगतौ सहोक्तेः सहभावाभावादर्थान्वय परिहाणिः प्रसज्येत । नैतदस्तीति-यस्मात्सहोक्तिरित्युक्तम्, न पुनः सहप्रतिपत्तिरिति । तेनात्यन्तसहाभिधानमेव प्रतिपन्नोत्कर्षावगतिरिति न किश्चिदसम्बद्धम् । ( इस प्रकार पूर्वपक्षी पुनः प्रश्न करता है कि जब आप आवृत्ति के द्वारा भिन्न-भिन्न वाक्यार्थों की प्रतीति होने से सहोक्ति अलङ्कार मानते हैं ) तो इस प्रकार आवृत्ति के द्वारा अन्य पदार्थ का ज्ञान होने पर सहभाव के अभाव के कारण सहोक्ति के अर्थान्वय में हानि होने लगेगी ( अतः उसे सहोक्ति कैसे कहा जा सकता है। ) ग्रन्थकार उत्तर देते हैं कि यह बात नहीं क्यों कि मैंने सहोक्ति ( साप कथन ) यह कहा है सह प्रतिपत्ति ( साथ ज्ञान ) नहीं कहा । अतः आत्यन्तिक सहाभिधान ही उत्कृष्ट बोध को प्राप्त है, अतः कुछ भी असम्बद्ध नहीं। कैश्चिदेषा समासोक्तिः सहोक्तिः कैश्चिदुच्यते । अर्थान्वयाच विद्वद्भिरन्यैरन्यत्वमेतयोः ।। १६० ।। कुछ लोग इसे समासोक्ति कहते हैं कुछ लोग सहोक्ति कहते हैं । अन्य विद्वान् इन दोनों में अर्थसम्बन्ध के कारण भिन्नता स्वीकार करते हैं ॥ १६ ॥
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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