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________________ ३५४ वक्रोक्तिजीवितम् प्रतीयमान रूपक ( का उदाहरण ) जैसे हे चन्चल एवं विशाल नेत्रों वाली (सुन्दरि )! इस समय (क्रोध के कालुप्य के दूर हो जाने के अनन्तर ) आकृतिसौष्ठव एवं कान्ति से दिशाओं के मुखों को परिपूर्ण कर देने वाले तुम्हारे इस मुख के मुस्कुराहट युक्त होने पर भी यह समुद्र जो थोड़ा भी क्षोभ ( चान्चल्य ) को नहीं प्राप्त होता है, उससे मैं समझता . हूँ कि स्पष्ट रूप से यह जल ( जड़ ) समूह ही है। नयन्ति कवयः काश्चिद्वक्रमावरहस्यताम् । अलङ्कारान्तरोल्लेखसहायं प्रतिभावशात् ॥ २० ॥ कविजन अपनी शक्ति के सामर्थ्य से अन्य अलवारों की रचना की सहायता पाले ( इस रूपकालङ्कार) को वक्रता के किसी लोकोत्तर रहस्य से युक्त कर देते हैं ॥ २० ॥ तदेव विच्छित्त्यन्तरेण विशिनष्टि-एतदेवरूपकाख्यमलङ्करणं काञ्चिदलौकिकवक्रमावरहस्यतां वक्रत्वपरमार्थतां नायन्ति प्रापयन्ति । तथोपनिबद्धानि यथा वक्रताविच्छित्तिवैचित्र्यादिरूढिरमणीयतया तदेव । तत्त्वं परं प्रतिभासते । कीदृशम्-अलङ्कारान्तरोल्लेखसहायम् । अलकारान्तरस्यान्यस्य ससन्देहोत्प्रेक्षाप्रभृतेः उल्लेखः समुद्भेदः सहायः काव्यशोभातिशयोत्पादने सहकारी यस्य तत्तथोक्तम् । कस्मान्नयन्तिप्रतिभावशात् । स्वशक्तेरायत्तत्वात् । तथाविधे लोककान्तिकान्तिगोचरे विषये तस्यापनिबन्धो विधीयते । यत्र तथाप्रसिद्धाभावात् सिद्धव्यवहारावतरणं साहसिकमिवावभासते विभूषणान्तरसहास्य पुनरुल्लेखत्वेन विधीयमानत्वात् सहृदयहृदयसंवादसुन्दरी परा प्रोढिरुत्पद्यते । (यथा)कि तारुण्यतरोः......"इत्यादि ।। ८५ ॥ उसी ( रूपक अलङ्कार ) को दूसरी शोभा से विशिष्ट करते हैं-इसी रूपक . नाम के अलङ्कार को ( कविजन ) किसी लोकोत्तर वक्रभाव की रहस्यता के पास ले जाते हैं अर्थात् वक्रता की परमार्थता को प्राप्त करा देते हैं। वैसे नङ्ग से प्रस्तुत किए गए हुए होते हैं जिससे कि वक्रता की रमणीतता के वैचित्र्य आदि की रूढिसुन्दरता के कारण वही तत्त्व उत्कृष्ट रूप में प्रतिभासित होता है। कैसे ( रूपकालङ्कार )को ? अन्य अलङ्कारों की रचना की सहायता वाले। अलारान्तर अर्थात् दूसरे ससन्देह उत्प्रेक्षा आदि ( अलङ्कारों)का उल्लेख अर्थात् सृष्टि या रचना जिसकी सहाय बर्थात् काव्य में सौन्दर्याविषय की सृष्टि करने में
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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