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________________ तृतीयोन्मेषः देशविवति रूपकालङ्कार हुआ। यह बहुत ही युक्तिसङ्गत है, क्योंकि अलङ्कार का प्रयोजन अलङ्कार्य के सौन्दर्य को उपस्थित करना ही होता है दूसरा ' कुछ नहीं।" यदि इसके द्वारा रूपक की अपेक्षा कुछ विलक्षणता लाई जाती है तो उससे इसकी रूपक की ही भेदान्तरता सिद्ध होती है जो इस तरह कहा गया है तो उसे रहने ही दीजिए। साथ ही कक्ष्या आदि निमित्तों के आरोप के लिए समीचीन मुख्यवस्तुविषय के बारे में विघटित हो जाने के कारण यह अलङ्कारविषयक दोषता कठिनाई से हटाने योग्य हो उठती है। इस लिए इससे भिन्न समाधान दिया जाता है। रूपकालङ्कारस्य परमार्थस्तावदयम्-यत् प्रसिद्धसौन्दर्यातिशयपदार्थसौकुमार्यनिवन्धनं वर्णनीयस्य वस्तुनः साम्यसमुल्लिखितं स्वरूपसंमा पणग्रहण सामर्थ्यविसंवादि । तेन 'मुखमिन्दुः' इत्यत्र मुखमिवेन्दुः सस्पायने, तेन रूपणं विवर्तते । तदेवमयमलङ्कारः ' रूपकालङ्कार का वास्तविक रहस्य यह है-वर्णनीय वस्तु का प्रसिव सौन्दर्य की अधिकता वाले पदार्थ को सुकुमारता पर आधारित साम्य के आधार पर समुद्भावित अपने स्वरूप के समर्पण को ग्रहण करने की अविसंवादिनी शक्ति हुआ करती है । इस लिए 'मुख चन्द्र है' इस कथन में मुख के तुल्य चन्द्र को बनाया जाता है और फिर उसी से आरोप निष्पन्न होता है । तो इस प्रकार इस अलङ्कार की व्यवस्था है। हिमाचलसुतावल्लिगाढालिङ्गितमूर्तये । संसारमरुमार्गककल्पवृक्षाय ते नमः ॥२॥ ( यथा वा) उपोढरागेण विलोलतारकम् ।। ८३ ।। इत्यादि । हिमालय की पुत्री रूपी लता के द्वारा प्रगाढ़ रूप से आलिङ्गित शरीर वाले संसार रूपी मरुस्थल के मार्ग के लिए अद्वितीय कल्पवृक्ष रूप तुम्हें प्रणाम है। अथवा जैसे-उपोरागेण विलोलतारकम् ॥ इत्यादि । प्रतीयमानरूपकं यथा लावण्यकान्तिपरिपूरितदिकमुखेऽस्मिन् स्मेरेऽधुना तव मुखे तरलायताक्षि | क्षोभं यदेति न मनागपि तेन मन्ये सुव्यक्तमेव जलराशिरयं पयोधिः ।।८४ ॥ २३ ब० जी०
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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