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________________ ( ४७ ) २. दूसरी प्रबन्धवक्रता वहाँ होती है जहां कि कवि इतिवृत्त की सम्पूर्ण कथा को प्रारम्भ तो करता है किन्तु उसकी समाप्ति उसके एक भाग से ही कर देता है क्योंकि वह आगे की कथा को प्रस्तुत कर नीरसता नहीं लाना चाहता । जैसे किरातार्जुनीय की कथा । पहले कवि ने धर्मराज के अभ्युदय तक को कथा को प्रारम्भ कर उसकी समाप्ति अर्जुन के किरातराज के साथ युद्ध के बाद ही कर दिया। ३. तीसरे प्रकार की प्रबन्धवक्रता वहाँ होती है जहाँ कि ववि प्रधान कथावस्तु के आधिकारिक फल की सिद्धि के उपाय को तिरोहित कर देने वाले किसी कार्यान्तर को प्रस्तुत कर कथा को विच्छिन्न कर देता है किन्तु उसी कार्यान्तर द्वारा हो प्रधान कार्य की सिद्धि करा देता है। जैसे शिशुपालवध महाकाव्य में। ४. चौथी प्रबन्धवकता कुन्तक के अनुसार वहाँ होती है जहाँ कि कवि एक फलप्राप्ति की सिद्धि में लगे हुए नायक को उसी के समान अन्य फलों की भी प्राप्ति करा देता है। जैसे नागानन्द नाटक के नायक जीमूतवाहन को अनेकों फलों की प्राप्ति होती है। ५. पांचवें प्रकार की प्रबन्धवक्रता कवि कथावस्तु में वैदग्ध्य दिखाकर नहीं, बल्कि केवल प्रबन्ध के उस नामकरण से ही प्रस्तुत कर देता है जो नामकरण प्रबन्ध की प्रधान कथायोजना का चिह्नभूत होता है। जैसे अभिज्ञानशाकुन्तल, मुद्राराक्षस आदि । ६. कुन्तक के अनुसार, जहां अनेक कविजन एक ही कथा का निर्वाह करते हुए अनेक प्रबन्धों की रचना तो करते हैं किन्तु उन प्रबन्धों में कहाँ विस्तृत वस्तु को संक्षिप्त करते हुए और संक्षिप्त वस्तु को विस्तृत करते हुये नये-नये शब्दों, अर्थों एवं अलंकारों से उन्हें एक दूसरे से सर्वथा भिन्न बना देते हैं, यह उन कवियों के सभी प्रबन्धों की वक्रता ही होती है। जैसे एक ही रामायण की कथा पर आधारित रामाभ्युदय, उदात्तराघव, वीरचरित, बालरामायण, कृत्यारावण आदि अनेक प्रबन्धों की परस्पर विभिन्नता का वैचित्र्य उन-उन प्रबन्धों को वक्रता को प्रस्तुत करता है। ___७. इसके अनन्तर कुन्तक महाकवियों के उन सभी प्रबन्धों में वक्रता स्वीकार करते हैं जो कि नये नये उपायों से सिद्ध होने वाले नीतिमार्ग का उपदेश करते हैं । जैसे-मुद्राराक्षस और तापसवत्सराज चरित मादि में नीति का उपदेश किया गया है। ___ इस प्रकार कुन्तक प्रथम उन्मेष में परिगणित छहों कविम्यापार को वक्रताओं का विवेचन चतुर्थ उन्मेष की समाप्ति तक समाप्त करते हैं ,
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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