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________________ ३२० वक्रोक्तिजीवितम न्यथाकर्तुमशक्यत्वात् । न च तथाविधशब्दवाच्यतामात्रादेव तद्विदांतदनुभवप्रतीतिरस्ति । 'गुडखण्ड'-शब्दाभिधानादपि प्रतिविषादेस्तदास्वादप्रसंगात् तदनुभवप्रतीतो सत्यां रसद्वयसमावेशदोषोऽप्यनिवार्यतामाचरति । यदि वा भमवत्प्रभावस्य मुख्यत्वं द्वयोरप्येतयो. रंगत्वाद् भूषणत्वमित्युच्यते तदपि न समीचीनम् । यस्मात् कारणस्य वास्तवत्वातिरेव स्यात् । निर्मूलत्वादेव तयोर्भावाभा. वयोरिव न कथंचिदपि साम्योपपत्तिरित्यलमनुचितविषयचर्वणचातुर्यचापलेन । यहां पर कामी और बाणाग्नि के तेज की समानरूप से शब्दवाच्यता सम्भव नहीं है। और न उतने से ही उस प्रकार के विरुद्ध धर्मों की स्थिति आदि के कारण विरुद्ध स्वभाव वाले उन दोनों का ऐक्य ही किसी प्रकार भी स्थापित किया जा सकता है, क्योंकि परमेश्वर के प्रयत्न करने पर भी स्वभाव नहीं बदला जा सकता। और फिर केवल उस प्रकार की शब्द वाच्यता से ही सहृदयों को उसका अनुभव नहीं होने लगता अन्यथा 'गुडखण्ड' शब्द के उच्चारण से भी उसके विपरीत ( आस्थावाले) विष आदि भी उसी समय आस्वाद्य होने लगेगें। अथवा यदि यहाँ उस अनुभव की प्रतीति मान ली जाय तो दो (विरुव) रसों के समावेश का दोष अनिवार्यरूप से आ जायगा। अथवा परमेश्वर के प्रभाव को मुख्य स्वीकार कर, इन दोनों की उसके अङ्गरूप में विद्यमान रहने के कारण अलंकारता मान ली जाय, ऐसा समाधान करें तो वह भी युक्तिसंगत नहीं। और क्योंकि कारण के स्तुतिरूप आदि ही हो सकने की सम्भावना है। उन दोनों ( कामी और शराग्नि के ) निर्मूल होने के कारण ही पदार्थों के अभाव की तरह किसी भी प्रकार समानता की सिद्धि नहीं हो सकती, इस प्रकार अनुचित विषय के विवेचन की चातुरी की चपलता दिखाना बेकार है। यदि वा निदर्शनेऽस्मिन्ननाश्वस्तः समाम्नातलक्षणोदाहरणसंगति सम्यक् समोहमानाः समर्षणा उदाहरणान्तरविन्यास रसवदलंकारस्य व्याचख्युः, यथा किं हात्येन मे प्रयास्यसि पुनः प्राप्तश्चिरादर्शनं केयं निष्करुणप्रवासरुचिता केनासि दूरीकृतः। स्वप्नान्तेष्विति तेवदन् प्रियतमग्यासक्तकण्ठग्रहो बुवा रोदिति रिक्तबाहुवलयस्तारं रिपुस्त्रीजनः ॥४४॥
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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