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________________ ३०८ वक्रोक्तिजीवितम् रूप भ्यवहार का जिसमें वर्णन किया जाता है ऐसे रस स्वरूप की अन्य आलङ्कारिकों द्वारा स्वीकृत अलंकारता का निराकरण करते हैं ( पदार्थ के ) स्वरूप से भिन्न किसी दूसरे का बोध न कराने के कारण तथा शब्द एवं अर्थ के सङ्गत न होने से 'रसवत्' अलंकार नहीं होता ॥११॥ अलंकारो न रसवत् । रसवदिति योऽयमुत्पादितप्रतीति मालंकार. स्तस्य विभूषणत्वं नोपपद्यते इत्यर्थः । कस्मात् कारणात्-स्वरूपादतिरिक्तस्य परस्याप्रतिभासनात् । वर्ण्यमानस्य वस्तुनो यत् स्वरूपमात्मीयः परिस्पन्दस्तस्मादतिरिक्तस्यात्यधिकस्य परस्याप्रतिभासनाद् अनवबोध. नात् । तदिदमत्र तात्पर्यम्-यत् सर्वेषामेवालंकृतीनां सत्कविवाक्याना. मिदमलंकार्यमिदमलंकरणम् इत्यपोद्धारविहितो विविक्तभावः सर्वस्य कस्यचित् प्रमातुश्चेतसि परिस्फुरति | रसवदलंकारवदिति वाक्ये पुनर• वहितचेतसोऽपि न किंचिदेतदेव बुध्यामहे । रसवत् अलंकार नहीं है। इसका अर्थ यह है कि 'रसवत् नाम का अलंकार है' ऐसा जिसका (प्राचीन आलंकारिकों द्वारा) बोध कराया गया है उसका अलंकारत्व उचित नहीं है। किस कारण से-स्वरूप से भिन्न दूसरे का बोध न होने के कारण। वर्णन किये जाने वाले पदार्थ का जो स्वरूप . अर्थात् अपना स्वभाव होता है उससे भिन्न अधिक दूसरे किसी का प्रतिभासन अर्थात् ज्ञान न होने के कारण ( 'रसवत्' अलंकार नहीं होता)। तो यहाँ इसका आशय यह है कि-श्रेष्ठ कवियों के सभी अलंकृत वाक्यों में यह अलंकार्य है, यह अलंकार है ऐसी विभाग-बुद्धि द्वारा उत्पन्न भिन्नता सभी यहाँ पर डा० डे के संस्करण में 'सर्वेषामेवालस्कृतीनाम्' पाठ मुद्रित था। इस पाठ को असंगत बताकर आचार्य विश्वेश्वर जीने अपनी 'विवेकाश्रित सम्पादन-पद्धति' के द्वारा 'सर्वेषामेवालंकाराणां सत्कविवाक्यगतानामिदमलंकार्यमिदमलंकरणम्' इत्यादि पाठ समुचित बताया है। पर विद्वान् हमारे पाठ को देखते हुए स्वयं इस बात का अनुमान कर सकते हैं कि आचार्य जी का विवेक उन्हें धोखा दे गया है । वस्तुतः हमें तो लगता है कि मुद्रण की गलती से 'ता' के स्थान पर 'ती' छप गया है। केवल 'ती' को 'ता' मान लेने पर पंक्ति का अर्थ समन्जस है। जब कि भाचार्य जी के पाठ को मानने पर अर्थ पूर्णतया असमअस ही रहता है। क्योंकि अलंकारों में अलंकार्य और अलंकार का भेद कहाँ से होगा। यह भेद तो अलंकृत वाक्यो में ही सम्भव है । इत्यलम् ।
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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