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________________ तृतीयोग्मेषः ३०७ द्विप्रकारं सहज सोकुमार्यतरयं स्वरूपं वर्णनाविषयवस्तुनः शरीरमेवाकार्यतामेवार्हति । व्यवहार के योग्य दूसरा ( स्वरूप वर्णनीय होता है ) । चेतन एवं जड़ पदार्थों का इस प्रकार का दूसरा स्वरूप वर्णनीय होता है अर्थात् कविव्यापार का विषय बनता है । कैसा ( स्वरूप ) व्यवहारोचित अर्थात् लोकव्यवहार के अनुरूप ( स्वरूप ) : कैसा होकर - धर्मादि की प्राप्ति के उपायभूत व्यापार का कारण होकर, धर्मादि ( धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष रूप ) चतुर्वगं ( अथवा पुरुषार्थचतुष्टय ) को सिद्ध करने में अर्थात् सम्पादित करने में उपायभूत जो परिस्पन्द अर्थात् अपना विलसित वही जिस ( स्वरूप ) का कारण होता है ( ऐसा स्वरूप ) । तो कहने का आशय यह है कि काव्य में जिन मुख्य चेतन आदि के व्यवहार का वर्णन किया जा रहा है उन सभी पदार्थों का ( धर्मादि ) चतुर्वर्ग की सिद्धि में उपायभूत अपने विलसितों की प्रधानता से युक्त रूप में वर्णन किया जाना चाहिए, तथा जो गौण चेतन स्वरूप वाले पदार्थ हैं वे भी धर्म, अर्थ आदि के उपायभूत अपने विलासों की प्रधानता से ही कवियों के वर्णन के विषय बनते हैं । जैसे कि शूद्रक इत्यादि राजाओं, शुकनास आदि प्रमुख मन्त्रियों के चरित्रों का वर्णन ( धर्मादि ) चतुर्वर्ग के अनुष्ठान के उपदेश के लिए ही किया जाता है । तथा लक्ष्य ( ग्रन्थ काव्यों में ) गोण चेतन हाथी-मृग आदि पदार्थों का, लड़ाई तथा शिकार आदि के अङ्ग रूप में अपने विलास से सुन्दर स्वरूप ही वर्णन का विषय दिखाई पड़ता है। और इसीलिए उस प्रकार के स्वरूप के वर्णन की प्रधानता से काव्य, काव्य की सामग्री एवं कवि का, चित्र, चित्र की सामग्री एवं चित्रकार के साथ साम्य पहले ही दिखाया जा चुका है । तो इस प्रकार स्वभाव की प्रधानता एवं रस को प्रधानता से दो तरह का स्वाभाविक सुकुमारता के कारण सरस वर्णनीय पदार्थ का स्वरूप शरीर ही है तथा उसका अलङ्कार्य होना ही ठीक है । तत्र स्वाभाविक पदार्थस्वरूपमलंकरणं यथा न भवति तथा प्रथममेव प्रतिपादितम् । इदानीं रसात्मनः प्रधानचेतन परिस्पन्दवर्ण्यमान वृत्तेर लंकारकारान्तराभिमतामलंकारतां निराकरोति अलंकारो न रसवत् परस्याप्रतिभासनात् । स्वरूपादतिरिक्तस्य शब्दार्थासङ्गतेरपि ॥ ११ ॥ उनमें पदार्थों का स्वाभाविक स्वरूप जैसे अलङ्कार नहीं होता इसका प्रतिपादन पहले ही किया जा चुका है। अब मुख्य चेतन पदार्थ के विलास
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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