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________________ ३०२ वक्रोक्तिजीवितम् दूसरा घाव पर नमक छिड़का गया' ऐसा कहने के बाद इसी को पुष्ट करने के लिये ही दूसरे श्लोक की रचना की गई है। जैसे—( राजा कहते हैं कि ) हे देवि वासवदत्ते! कानों के बगल में लगी हुई पद्मराग मणि की कली को अनार का बीज समझ कर चोंच से खींचते हुए जिस (शुक ) ने तुम्हारी इस कपोलस्थली पर पदप्रहार किया था उस अपने नर्मसुहृद के तोते की बातों का निःशङ्क होकर तुम जवाब भी नहीं देती हो जो ( तुम्हारे वियोग से उत्पन्न ) शोक के कारण बार-बार चिल्ला रहा है ॥ २९ ॥ अत्र शुक्रस्यैवंविधदुर्ललितयुक्तत्वं वाल्लभ्यप्रतिपादनपरत्वे. नोपात्तम् । 'असौ' इति कपोलस्थल्याः स्वानुभवस्वदमानसौकुमार्योस्कर्षपरामर्शः । एवमेवोद्दीपन विभावैकजीवितत्वेन करुणरसः काष्ठाधिरूढिरमणीयतामनीयत । __यहाँ पर तोते का इस प्रकार के दुर्ललितत्व से युक्त होना उसकी अत्यधिक प्रियता का प्रतिपादन करने के लिये प्रयुक्त किया गया है । 'असो' इस पद के द्वारा कपोलस्थली के अपने अनुभव द्वारा आस्वादित किए जाने वाले सौकुमार्यातिशय का परामर्श किया गया है । इसी प्रकार उद्दीपन विभाव ही जिसका एकमात्र प्राण हो गया है ऐसा करुण रस रमणीयता की पराकाष्ठा को पहुंचाया गया है। एवं विप्रलम्भशृङ्गारकरुणयोः सौकुमार्यादुदाहरणप्रदर्शनं विहितम् । रसान्तराणामपि स्वयमेवोत्प्रेक्षणीयम् । इस प्रकार विप्रलम्भ शृंगार एवं करुण रसों के सुकुमार होने के कारण उनका उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। अन्य रसों के भी उदाहरण अपने आप समझ लेना चाहिए। ___ एवं द्वितीयमप्रधानचेतनसिंहादिसंबन्धि यत्स्वरूपं तदित्थं कवीनां । वर्णनास्पदं संपद्यते । कीदृशम्-स्वजात्युचितहेवाकसमुल्लेखोज्ज्वलम् । स्वा प्रत्येकमात्मीया सामान्यलक्षणवस्तुस्वरूपा या जातिस्तस्याः समुचितो यो हेवाकः स्वभावानुसारी परिस्पन्दस्तस्य समुल्लेखः सम्यगुल्लेखनं वास्तवेन रूपेणोपनिबन्धस्तेनोज्ज्वलं भ्राजिष्णु, तद्विदाह्लादकारीति यावत् । ____ इस तरह जो गौण चेतन सिंह आदि पदार्थों से सम्बन्धित दूसरा स्वरूप है वह इस प्रकार का होने पर कवियों के वर्णन योग्य बनता है। फैसा
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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