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________________ तृतीयोन्मेषः ३०१ Har i omanimammirha । हरिण को धारागृह आदि स्थानों में ढूंढकर वासवदत्ता को न पाने से निराश हो जाने पर राजा हरिण से कहता है-) हे पुत्र ! धारागृह को देखकर ( वहाँ अपनी माता वासवदत्ता को न पाकर ) मलीन मुख होकर क्रीडागृहों में भ्रमणकर ( वहाँ भी न पाने से ) बड़ी-बड़ी उसांसें भरकर, शीघ्र ही बकुलवृक्ष की लताओं की गलियों में नजर दौड़ाकर मेरे पास क्यों आ रहा है, प्रियवचनों से क्या लाभ ? ( अर्थात् यदि मैं तुमसे झूठे ही प्रियवचनों का प्रयोग करूं कि तुम्हारी माता कहीं अभी गई है आती होगी तो उससे क्या लाभ क्योंकि ) कठोरहृदय ( तुम्हारी ) माता ने बहुत दूर देश ( स्वर्ग) को जाते समय मेरे ही साथ तुम्हें भी त्याग दिया है। ( अब उससे मिलना असम्भव है ) ॥ २७ ॥ ___ अत्र रसपरिपोषनिबन्धनं विभावादिसंपत्समुदयः कविना सुतरां समज्जम्भितः । तथा चास्यैव वाक्यस्यावतारकं विदूषकवाक्यमेवं प्रयुक्तम्___ कवि ने यहाँ पर रस के परिपोष के कारणभूत विभावादि की सामग्री के समुदाय को भलीभांति प्रस्तुत किया है। और जैसे कि इसी श्लोक को अवतीर्ण करनेवाले विदूषक के वाक्य का इस प्रकार प्रयोग किया है पमादो एसो क्खु देवीए पुत्तकिदको हरिणपोदो अत्तभवंतं अणुसरदि ॥ २८ ॥ ( प्रमादः एष खलु देव्याः पुत्रकृतको हरिणपोतोऽत्रभवन्तमनुसरति ।) यह बड़ी लापरवाही है कि देवी का पुत्र सदृश यह मृगशावक आपका अनुगमन कर रहा है ॥ २८ ॥ एतेन करुणरसोद्दीपनविभावता हरिणपोतकधारागृहप्रभृतीनां सुतरां समुत्पद्यते । तथा चायमपरः क्षते क्षारावक्षेप इति रुमण्वद्वचनादनन्तरमेतत्परत्वेनैव वाक्यान्तरमुपनिबद्धम् । यथाकर्णान्तस्थितपद्मरागकलिकां भूयः समाकर्षता चकच्चा दाडिमबीजमित्यभिहता पादेन गण्डस्थली । येनासौ तव तस्य नर्मसुहृदः खेदान्मुहुः क्रन्दतो निःशङ्ख न शुकस्य किं प्रतिवचो देवि त्वया दीयते ॥ २६ ॥ इस ( विदूषक के कथन ) से मृगशावक एवं धारागृह आदि भली भांति करुण रस के उद्दीपन विभाव बन जाते हैं। और जैसे कि रुमण्वान के 'यह ..
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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