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________________ तृतीयोन्मेषः सका ऐसा यह वाणी का परिस्पन्द है । इस तरह इस के तत्त्व को न जानने के कारण कोई भी इससे कुछ भी ग्रहण नहीं कर सका इसलिये मेरी प्रतिभा से अब परम तत्त्व का उद्घाटन किये जाने पर इसका रहस्य प्रकट हो जायगा, इस प्रकार अपने अलौकिक ( काव्य ) व्यापार की सफलता को प्रतिपादित कर देने के कारण वाणी के परिस्पन्द के विजय की बात ( कवि द्वारा ) कही गई है। यद्यपि रसस्वभावालंकाराणां सर्वेषां कविकौशलमेव जीवितम् , तथाप्यलंकारस्य विशेषतस्तदनुग्रहं विना वर्णनाविषयवस्तुनो भूषणाभिधायित्वेनाभिमतस्य स्वरूपमात्रेण परिस्फुरता यथार्थत्वन निबध्यमानस्य तद्विदालादविधानानुपपत्तेमनाङमात्रमपि न वैचित्र्य. मुत्प्रेक्षामहे, प्रचुरप्रवाहपतितेतरपदार्थसामान्येन प्रतिभासनात् । यथा यद्यपि कवि की कुशलता ही रस, स्वभाव एवं अलंकार सभी का प्राण होती है, फिर भी विशेष रूप से वर्णित किए जाने वाले पदार्थ के अलंकार रूप से कहे जाने वाले केवल स्वरूप से ही स्फुरित होते हुए यथार्थता से निरूपित किए जाने वाले अलंकार के उस ( कविकोशल) की कृपा के विना सहृदयों के लिये आनन्ददायक न होने से कुछ भी नैचित्र्य नहीं आ सकता क्योंकि प्रचुर प्रवाह में पड़े हुए दूसरे पदार्थों की भांति सामान्य रूप से ही वह भी प्रतीत होगा । जैसे-- दूर्वाकाण्डमिव श्यामा तन्वी श्यामलता यथा ।। १७ ॥ इत्यत्र नूतनोल्लेखमनोहारिणः पुनरेतस्य लोकोत्तरविन्यसनविच्छित्तिविशेषितशोभातिशयस्य किमपि तद्विदाह्लादकारित्वमुद्भिद्यते । यथा अस्याः सर्गविधौ इति ।। १८ ॥ यथा कि तारुण्यतरोः इति ।। १६ ॥ दूब के तिनकों की तरह सांगली छरहरी स्त्री सोमलता ( अथवा प्रियलता ) जैसी है ॥ १७ ॥ यहाँ पर ( प्रयुक्त उपमालंकार नैचित्र्यजनक नहीं है ) ॥ जब कि नये ढंग से किये गये वर्णन के कारण मनोहर एवं अलौकिक रचना के मैचित्र्य से विशिष्ट बना दिये गये सौन्दर्यातिशय वाला यही (अलंकार) किसी लोकोत्तर सहृदयाह्लादकारिता को व्यक्त करता है। जैसे-( उदाहरण
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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