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________________ २९२ वक्रोक्तिजीवितम् क्योंकि इसी ( कवि कौशल ) से ही सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर आजतक उसी एक ही स्वरूप में निश्चितरूप से स्थित ( वस्तुओं के ) स्वभाव, ( उनके ) अलङ्कारों एवं वक्रता प्रकारों का, नये-नये ढङ्ग से वर्णन होने के कारण अद्वितीय एवं सहृदयों को आनन्दित करनेवाला कोई दूसरा ही स्वरूप सामने आता है। इसीलिए ऐसा कहा जाता है आसंसारं कइपुंगवेहि पडिदिअहगहिअसारो बि । अदि अभिन्नमुद्दो व्व ज अइ वाओं परिष्फंदो ।। १६ ।। (आसंसारं कविपुङ्गवैः प्रतिदिवसगृहीतसारोऽपि । अद्याप्यभिन्नमुद्र इव जयति वाचां परिस्पन्दः ।।) सृष्टि के प्रारम्भ से ही श्रेष्ठ कवियों द्वारा नित्य प्रति तत्व का ग्रहण किए जाने पर भी आज भी अप्रकट रहस्यवाला-सा वाणी का परिस्पन्द सर्वोत्कर्ष से युक्त है ॥ १६ ॥ ___अत्र सगीरम्भात् प्रभृति कविप्रधानैः प्रातिस्विकप्रतिभापरिस्पन्द. माहात्म्यात् प्रतिदिवसगृहीतसर्वस्वोऽप्यद्यापि नवनवप्रतिभासानन्त्यविज़म्भणादनुद्घाटितप्राय इव यो वाक्यपरिस्पन्दः स जयति सर्वोस्कर्षेण वर्तते इत्येवमस्मिन् सुसङ्गतेऽपि वाक्यार्थे कविकौशलस्य विलसितं किमप्यलौकिकमेव परिस्फुरति ! यस्मात् स्वाभिमानध्वनिप्राधान्येन तेनैतदभिहितम् यथा-आसंसारं कविपुङ्गवैः प्रतिदिवसगृहीतसारोऽप्यद्याप्यभिन्नमुद्र इवायम् । एवमपरिज्ञाततत्त्व. तया न केनचित् किमप्येतस्माद् गृहीतामात सत्प्रतिभद्धाटितपरमार्थस्येदानीमेव मुद्राबन्धोद्भदो भविष्यतीति लोकोत्तरस्वपरिस्पन्दसाफल्यापत्तेर्वाक्यपरिस्पन्दो जयतीति संबन्धः । यहाँ सृष्टि के प्रारम्भ से ही श्रेष्ठ कवियों द्वारा अपनी-अपनी असाधारण प्रतिभा के विलास की प्रभुता से नित्य प्रति जिसके तत्त्व का ग्रहण किया गया है फिर भी नई-नई प्रतिभाओं के असंख्य विलासों से आज भी जिसका निरूपण नहीं किया जा सका है ऐसा जो वाणी का विलास वह विजयी है अर्थात् सर्वोत्कृष्ट रूप में विद्यमान है। इस ढङ्ग से इस वाक्यार्थ का समन्वय हो जाने पर भी कवि की निपुणता का कोई लोकोत्तर ही वैभव झलकता है क्योंकि उस ( कवि ) ने अपने अभिमान की व्यन्जना की प्रधानता से इस प्रकार कहा है कि-'सृष्टि के प्रारम्भ से ही श्रेष्ठ कवियों द्वारा प्रतिदिन जिसके तत्त्व का ग्रहण किया गया है किन्तु आज भी जिसका उद्घाटन नहीं हो
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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